फूलन देवी की कहानी आज़ाद भारत की सबसे विवादास्पद और चर्चित गाथाओं में से एक है। इसको एक दलित लड़की का डकैत बनना, फिर संसद तक पहुँचना—इस पूरे घटनाक्रम को आमतौर पर ‘दलित बनाम सवर्ण’ संघर्ष के रूप में देखा और प्रस्तुत किया गया है, जबकि वो जिस वर्ग में आती है वो यादव या मल्लाह कहलाते है और ये वर्ग OBC में आता है । लेकिन आज जब हम इस केस को तथ्यों, पुलिस रिपोर्ट्स, और तात्कालिक राजनीतिक संदर्भ के साथ जांचते हैं, तो यह स्पष्ट होता है कि इस कहानी में जितना सच है, उतने ही गहरे मिथक और राजनीतिक नैरेटिव भी गढ़े गए थे सिर्फ सवर्ण समाज को दोषी बनाने के लिए ।
बाल विवाह और पहला उत्पीड़न: अपने ही समाज से
फूलन देवी की शादी महज़ 11 वर्ष की आयु में मल्लाह जाति के एक अधेड़ व्यक्ति पुत्ती लाल से कर दी गई थी। यही नहीं, जब वह अपने ससुराल में गई, तो उसके साथ दुर्व्यवहार हुआ। उसकी खुद की जाति—निषाद/मल्लाह—के लोगों ने ही उसे मानसिक और शारीरिक यातना दी और शायद बलात्कार भी हुआ । बाद में जब वह मायके लौटी, तो गाँव में समाज के ठेकेदारों—जिनमें जातिगत रूप से उसके अपने लोग भी शामिल थे—ने उसे ‘चरित्रहीन’ घोषित किया, क्युकी सवर्णो को तो पता भी नहीं होगा की कौन आया कौन गया ।
प्रश्न यह है कि जिन लोगों ने पहली बार फूलन को मजबूर किया शारीरिक शोषण के लिए, अपमान किया और फिर शोषण के बाद चरित्रहीनता की गर्त में डाला, उन पर उसने कोई प्रतिशोध नहीं लिया। न उन्हें गोली मारी, न उन्हें अपमानित किया, न ही समाज के सामने दोषी बताया।
डकैतों के गिरोह में जाना: जातीय नहीं, व्यक्तिगत अपमान का बदला
फूलन ने एक ठाकुर डकैत विक्रम मल्लाह के साथ मिलकर एक गिरोह बनाया और फिर धीरे-धीरे अपराध की दुनिया में प्रवेश किया। विक्रम ने उसे सुरक्षा दी, लेकिन कुछ ही समय बाद विक्रम की हत्या शेर सिंह ठाकुर नामक गिरोह सदस्य ने कर दी। इसके बाद फूलन को बंधक बनाया गया, कथित रूप से गैंगरेप हुआ।
यहां ध्यान देने योग्य बात ये है कि ये घटना एक विशेष समूह (ठाकुर) से संबंधित कुछ लोगों से जुड़ी थी, न कि पूरे सवर्ण समाज से। लेकिन इस एक घटना के बाद फूलन ने जो प्रतिक्रिया दी, वह ‘जातिगत सामूहिक बदले’ का रूप ले चुकी थी।
बिहार की ‘बेलछी’ नीति और जातिगत वोटबैंक की नींव
1970 और 80 के दशक में बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश में जातिगत राजनीति तेजी से पनप रही थी। कांशीराम और बाद में मुलायम सिंह यादव जैसे नेताओं ने इस नैरेटिव को ‘सवर्णों द्वारा दलितों पर अत्याचार’ के रूप में प्रस्तुत कर दिया।
सवाल यह है कि क्या फूलन देवी का घटनाक्रम इसी राजनीति का शिकार बना?
सच यह है कि फूलन के साथ जो हुआ, वह शोषण और अन्याय की एक करुण कहानी थी, लेकिन उसका 90% हिस्सा उसके अपने सामाजिक-जातिगत समूह से जुड़ा था। चाहे वह बाल विवाह हो, पारिवारिक उत्पीड़न, या गाँव के ठेकेदारों द्वारा मानसिक उत्पीड़न—इनमें से अधिकांश घटनाएं मल्लाह या अन्य पिछड़े वर्गों के पुरुषों से जुड़ी थीं।
फूलन देवी को डकैतों के एक गिरोह में अपहरण करके शामिल करने का काम “बब्बू सिंह” नामक एक डकैत ने किया था, जो चंबल के एक कुख्यात डकैत गिरोह से जुड़ा था। यह घटना लगभग 1979 के आस-पास की है, जब फूलन महज़ 15-16 साल की थी। बब्बू सिंह किस जाति का था पता नहीं, लेकिन इसी के गेंग में एक और था जिसका नाम था विक्रम मल्लाह।
कुछ समय के बाद डकैत विक्रम मल्लाह (मल्लाह जाति, यानी फूलन की अपनी जाति) ने बब्बू सिंह को मारकर गिरोह का नेतृत्व अपने हाथ में ले लिया, यहाँ जिस गिरोह ने फूलन का अपहरण किया था उसमे सभी जाति के लोग थे और फूलन उस गेंग में पहली महिला मेंबर थी तो ऐसा कहना की यहाँ उसका शारीरक शोषण या बलात्कार नहीं हुआ होगा एकदम गलत होगा, यहाँ भी जरूर हुआ होगा, अगर गौर से देखे तो अभी तक जितना भी शारीरक शोषण और बलात्कार हुआ वो सब उसकी जाति के लोगो ने किया या फिर उसके जाति के लोगो से मिले हुए अन्य जाति के लोगो ने किया, और उनको स्पस्ट रूप से ठाकुर सवर्ण या राजपूत बिना सबूत के कहना सवर्णो पर अत्याचार और अन्याय होगा।
डकेतो का गेंग ठाकुर वनाम मल्लाह
बेहमई नरसंहार: न्याय या राजनीतिक संदेश?
14 फरवरी 1981 को यूपी के कानपुर देहात स्थित बेहमई गाँव में फूलन और उसके साथियों ने 20 लोगों की निर्ममता से हत्या कर दी। दावा था कि इन लोगों ने फूलन के साथ बलात्कार किया था, लेकिन कब किया था ? डकैत बनने के पहले या बाद में ? या फिर ये लोग डकैत थे जो आत्मसमर्पण करके सामान्य जीवन जी रहे थे ? आखिर इन बीस लोगो ने बलात्कार किया कब था ? और कब किया ? क्युकी 1976 से 1978 तक ससुराल से मानसिक क्रूरता और बलात्कार के बाद मायके में रही, फिर 1979 में डकेतो ने अपहरण कर लिया, 1980 में विक्रम मलाह के साथ अपना गेंग बना लिया फिर ठाकुर गेंग से लड़ाई में विक्रम मारा गया और ये 1980 ठाकुरो वाले डकेतो के गेंग में अपने बाकी बचे साथिओ शामिल हो गयी और 1981 में बीस्ट ठाकुरो को मार दिया ? तो सवाल ये है की इन बीस ठाकुरो ने कब उसके साथ गलत किया था । क्युकी FIR और बाद की CBI जांच में किसी के खिलाफ बलात्कार का मुकदमा नहीं चला। न मेडिकल रिपोर्ट, न स्वतंत्र गवाह, और न ही फूलन के बयान में विशेष पुष्टि।
फूलन ने किन्हें मारा?
- सभी के नाम ‘सिंह’ थे—लेकिन ध्यान देने वाली बात ये है कि ‘सिंह’ उपनाम सिर्फ ठाकुरों तक सीमित नहीं होता। वह यादव, कुर्मी और अन्य जातियों में भी चलता है।
- मरने वालों में कुछ OBC जातियों के भी लोग शामिल थे।
तो क्या यह जातिगत प्रतिशोध था या कुछ नेताओं द्वारा उस हत्याकांड को जातिगत रंग देना एक सोची-समझी रणनीति थी?
फूलन का आत्मसमर्पण और राजनीतिक संरक्षण
1994 में मुलायम सिंह यादव के मुख्यमंत्री रहते फूलन देवी का आत्मसमर्पण हुआ। बिना सजा काटे, बिना मुकदमे के नतीजे के, फूलन को VIP ट्रीटमेंट मिला, और बाद में SP पार्टी ने उन्हें मिर्जापुर से सांसद बनाया।
वहीं दूसरी तरफ, 20 मृतकों के परिजनों को आज भी न्याय नहीं मिला। कोर्ट ने फूलन के खिलाफ केस दर्ज किया था, लेकिन राजनीतिक संरक्षण और जातिगत समीकरणों के चलते वह कभी सजा तक नहीं पहुँचीं।
बॉलीवुड और मीडिया: भावनात्मक सहानुभूति से प्रेरित नैरेटिव
1988 में ‘बैंडिट क्वीन’ नामक फिल्म बनी जिसने फूलन को एकदम से ‘दलित क्रांति की देवी’ बना दिया। फिल्म में तथ्यों से ज़्यादा भावनात्मक अपील थी—और मुख्य रूप से ठाकुरों को खलनायक के रूप में दिखाया गया।
कोई यह नहीं पूछता कि फूलन की अपनी जाति के लोगों ने क्या किया था?
या फिर क्यों वह अपने पहले उत्पीड़कों से बदला नहीं लेती?
नैरेटिव बदलने की जरूरत
फूलन देवी का केस केवल अन्याय या प्रतिशोध की कहानी नहीं है, बल्कि यह हमारे समाज में जातीय नैरेटिव के राजनीतिक इस्तेमाल का एक जीता-जागता उदाहरण है।
जहाँ एक ओर उसके अपने समाज के अपराधियों को ‘समाज के दबे-कुचले लोग’ कहकर छोड़ दिया गया, वहीं जिन लोगों के खिलाफ कोई मेडिकल सबूत या कानूनी पुष्टि नहीं मिली, उन्हें ‘जातीय अपराधी’ बना दिया गया।
अब समय आ गया है कि हम तथ्यों के आधार पर फूलन देवी के केस को नए सिरे से देखें, समझें और एक संतुलित दृष्टिकोण अपनाएं—जहां न फूलन को देवी बना दिया जाए और न ही ठाकुरो को खलनायक।
हमें सत्य चाहिए, सहानुभूति नहीं।


































