भारत का समाज हजारों वर्षों से विविधताओं में बँटा हुआ है। एक ओर इसे “जातिगत भेदभाव” कहकर दोषी ठहराया गया, दूसरी ओर अगर गहराई से देखा जाए तो इसमें एक व्यवहारिक सामाजिक संतुलन भी छिपा था। हमारे पूर्वजों ने जो सामाजिक सीमाएँ खींचीं, उन्हें आज केवल छुआछूत, उत्पीड़न और अन्याय कहकर प्रचारित किया गया। लेकिन क्या कभी किसी ने सोचा कि आखिर सवर्णों ने ये दूरी क्यों बनाई?
आज के समय की घटनाएँ और व्यवहार देखकर लगता है कि सवर्ण समाज की दूरियाँ कई बार स्वार्थी या क्रूरता से नहीं, बल्कि अनुभव और विवेक से बनी थीं।
1. आज का उदाहरण क्या बताता है?
25 मई 2025 को उत्तर प्रदेश जिले के एटा जिले के जैनपुरा गाँव (एटा जिले के गांव) में ठाकुर समाज द्वारा श्रीमद्भागवत कथा के दौरान निकाली गई कलश यात्रा को दलित समुदाय ने रोक दिया। उनका तर्क था कि “14 अप्रैल को अंबेडकर जयंती की शोभायात्रा को अनुमति नहीं दी गई थी, इसलिए अब ठाकुरों की यात्रा नहीं निकलने देंगे।”
ध्यान रहे, इस आरोप का कोई ठोस प्रमाण या FIR नहीं मिला। यानी बिना सबूत सवर्ण समाज पर आरोप लगा दिया गया, और उसके जवाब में दलित समुदाय ने ठाकुरों की धार्मिक परंपरा में बाधा डाल दी।
- ठाकुर समाज की महिलाएँ और बच्चियाँ लगभग 2 घंटे गर्मी में खड़ी रहीं।
- पुलिस ने समझौता कराया, लेकिन अंत में दलित समुदाय को “अपने अधिकारों के प्रति जागरूक” कहकर महिमामंडित कर दिया गया।
सोचिए, अगर उल्टा होता तो?
अगर ठाकुर दलितों की यात्रा रोकते तो तुरंत अत्याचार, उत्पीड़न और SC/ST ऐक्ट की धाराएँ लग जातीं। मीडिया इसे जातीय घमंड बताता, और सवर्ण समाज को दोषी ठहरा देता।
2. दलित अब सिर्फ़ ‘दयनीय वर्ग’ नहीं रहे
आज का दलित समाज –
- राजनीतिक रूप से मजबूत है,
- संगठित है,
- आरक्षण, SC/ST ऐक्ट जैसी कानूनी ढाल के साथ खड़ा है,
- और मीडिया/NGO/पार्टियों का सीधा वोट बैंक है।
अब यह वर्ग सीधे ठाकुरों से टकरा सकता है। तो सवाल उठता है—जब बराबरी से टकराने की ताकत आ गई है, तो फिर विशेषाधिकार और सहानुभूति क्यों?
यानी जो वर्ग खुद को “वंचित” कहकर सहानुभूति और आरक्षण लेता है, वही वर्ग जब मनचाहा हो तो ताकतवर बनकर दूसरों की धार्मिक परंपराओं को रोक देता है। क्या यह समानता है या दोहरा चरित्र?
3. क्या यही वजह थी कि सवर्णों ने दूरी बनाई?
हमारे पूर्वजों ने जातीय सीमाएँ केवल अहंकार या घृणा से नहीं बनाई थीं। इसके पीछे व्यवहारिक कारण भी थे:
- झूठे आरोप और अनावश्यक विवाद से बचाव
- जैसे आज SC/ST ऐक्ट का दुरुपयोग कर किसी भी सवर्ण को फँसाया जा सकता है, वैसा ही पहले भी सामाजिक विवादों को रोकने के लिए दूरी बनाई गई होगी।
- सामाजिक शांति बनाए रखना
- जब दो वर्गों की सोच और संस्कार बिल्कुल अलग हों, तो दूरी बनाए रखना टकराव से बेहतर होता है।
- अनुशासन और ज़िम्मेदारी में फर्क
- जब कोई वर्ग बार-बार परंपराओं और नियमों का उल्लंघन करे, तो उसे सीमित करना समाज के संतुलन के लिए ज़रूरी माना गया।
लेकिन बाद में इन्हीं सीमाओं को “छुआछूत और शोषण” कहकर पेश किया गया, जबकि हकीकत कहीं ज़्यादा जटिल थी।
4. आज भी वही मानसिकता—बिना सबूत आरोप, फिर महिमामंडन
जैनपुरा की घटना इसका ताज़ा उदाहरण है।
- दलितों ने दावा किया कि अंबेडकर यात्रा को रोका गया, जबकि उसका कोई प्रमाण नहीं।
- फिर ठाकुरों की यात्रा रोकी गई और इसे “अपने अधिकारों के प्रति जागरूकता” कह दिया गया।
- प्रशासन ने 2 घंटे बाद यात्रा की अनुमति दी, लेकिन मीडिया में खबर आई—“दलितों ने विरोध कर अपनी ताकत दिखाई।”
यानी सत्य चाहे जो भी हो, नैरेटिव हमेशा एकतरफा ही बनेगा।
5. सवर्णों की मजबूरी क्यों बनी रहती है?
आज सवर्णों को दोहरी मार झेलनी पड़ रही है:
✅ क़ानूनी असमानता – SC/ST ऐक्ट में ज़रा सा भी विवाद हो तो सवर्ण पर सीधा मुकदमा, लेकिन उल्टा होने पर कोई कड़ा ऐक्शन नहीं।
✅ मीडिया नैरेटिव – दलित हमेशा ‘वंचित’ बताकर दिखाए जाते हैं, सवर्ण हमेशा ‘घमंडी’।
✅ राजनीतिक वोट बैंक – किसी भी दलित मुद्दे को राजनीतिक संरक्षण मिलता है, लेकिन सवर्ण मुद्दे पर कोई दल खुलकर नहीं बोलता।
ऐसे में सवर्ण समाज को समझ में आ गया है कि उचित दूरी बनाए रखना ही बेहतर है।
6. अब क्या सवर्णों को दूरी और भी बढ़ानी चाहिए?
जवाब है हाँ।
👉 जहाँ दलित समुदाय आज भी बिना सबूत सवर्णों पर आरोप लगा सकता है और उसे “जागरूकता” कहा जाता है, वहाँ सवर्ण समाज को अपने को अनावश्यक विवादों से बचाने के लिए दूरी ही सही रास्ता है।
👉 अगर दलित समाज इतना सशक्त हो चुका है कि सीधे ठाकुरों से टकरा सकता है, तो उसे अब आरक्षण और विशेषाधिकारों की आड़ में छूट नहीं मिलनी चाहिए।
👉 सवर्णों को अपनी ऊर्जा झगड़ों में नहीं, बल्कि अपने समाज को संगठित करने और जागरूक बनाने में लगानी चाहिए, क्योंकि असली ताकत आत्मनिर्भरता और एकजुटता में है।
7. क्या अब सामाजिक पुनर्मूल्यांकन ज़रूरी है?
- दलित समाज ने जिस नैरेटिव के ज़रिए सहानुभूति और विशेषाधिकार पाए, अब वही नैरेटिव तथ्य से ज़्यादा प्रचार पर आधारित है।
- सवर्ण समाज को अब यह समझना होगा कि उनके पूर्वजों ने जो सीमाएँ खींचीं, वह क्रूरता नहीं बल्कि अनुभव से सीखा गया सच था।
- आज भी अगर सवर्ण खुलकर मेलजोल बढ़ाएंगे तो झूठे आरोप और कानूनी जाल में फँस सकते हैं।
इसलिए उचित दूरी बनाए रखना ही सामाजिक शांति और आत्म-सुरक्षा के लिए बेहतर है।
निष्कर्ष
सवाल यह नहीं है कि कौन शोषित है और कौन शोषक।
सवाल यह है कि क्या आज का दलित समाज सच में वंचित है या सिर्फ़ राजनीतिक और कानूनी सुरक्षा का लाभ उठाकर सवर्णों को कमजोर बना रहा है?
जैनपुरा की घटना ने साफ़ कर दिया कि—
✅ जब दलित चाहें तो ठाकुरों की धार्मिक यात्रा रोक सकते हैं।
✅ बिना सबूत आरोप लगाकर भी माहौल बनाया जा सकता है।
✅ मीडिया और राजनीति हमेशा उनके पक्ष में नैरेटिव खड़ा करेगी।
तो सवर्ण समाज के लिए सबसे बड़ा सबक यही है—
👉 अपने समाज को संगठित करो।
👉 बेवजह के मेलजोल और झूठे नैरेटिव में मत फँसो।
👉 जहाँ ज़रूरी हो, वहाँ दूरी बनाए रखो ताकि अनावश्यक विवाद और क़ानूनी जाल से बच सको।
शायद इसी अनुभव से हमारे पूर्वजों ने सामाजिक सीमाएँ खींचीं थीं। उन्होंने कोई क्रूरता नहीं, बल्कि भविष्य के टकराव को रोकने का व्यावहारिक रास्ता चुना था।


































