तुलसीदास जी ने श्रीरामचरितमानस में स्त्री के गौरव और उसके गुणों की महिमा का सुंदर वर्णन किया है – “पुत्री अपने पिता और पति दोनों के कुलों को अपने गुणों से पवित्र कर देती है।” यह वाक्य नारी के महत्व, उसकी गरिमा और उसकी आत्मिक शक्ति को दर्शाता है। लेकिन आज के सामाजिक परिदृश्य में जिस प्रकार की घटनाएं सामने आ रही हैं – जैसे कि बेटियों द्वारा अपने ही माता-पिता, भाई, पति, यहां तक कि मासूम बच्चों की हत्या तक करना – वह चिंतन का विषय है।
क्या कारण है कि जब बेटियाँ अशिक्षित थीं, तो इस प्रकार की घटनाएं विरल थीं? क्या आज की आधुनिक शिक्षा व्यवस्था ने ज्ञान से अधिक विद्रोह का बीज बो दिया है? क्या यह शिक्षा चरित्र निर्माण में विफल हो रही है? या फिर हमारी संस्कृति और संस्कारों से दूरी इसका कारण बन रही है?
समस्या की जड़:
आजकल मीडिया रिपोर्ट्स, सोशल मीडिया और अख़बारों में अक्सर हम देखते हैं – एक किशोरी ने प्रेम में बाधा बनने पर अपनी मां की हत्या कर दी, एक युवती ने अपने अजन्मे शिशु को मार डाला क्योंकि वह उसके ‘कैरियर’ में बाधक था, या एक पत्नी ने अपने पति और ससुराल पक्ष को ज़हर दे दिया क्योंकि वह किसी और के साथ जीवन बिताना चाहती थी। यह सब अचानक नहीं हुआ।
ऐसी घटनाएं शिक्षा की विफलता और संस्कारों के क्षरण की तरफ इशारा करती हैं। जब शिक्षा केवल रोज़गार पाने का माध्यम बन जाए और नैतिकता, सह-अस्तित्व और कर्तव्य का पाठ न पढ़ाए, तब समाज में इस प्रकार की घटनाएं होना स्वाभाविक हो जाता है।
क्या शिक्षा दोषी है?
शिक्षा का उद्देश्य केवल जानकारी देना नहीं होता – उसका सबसे बड़ा उद्देश्य होता है चरित्र निर्माण। लेकिन आज की शिक्षा व्यवस्था में नैतिक शिक्षा, जीवन मूल्य, माता-पिता के प्रति कर्तव्यबोध या समाज के प्रति उत्तरदायित्व जैसे विषय गायब हो चुके हैं।
जब शिक्षा से “धर्म” को अलग कर दिया गया, जब “संस्कार” को पुराने जमाने की बात मान लिया गया और जब “कर्तव्य” के स्थान पर “अधिकार” को प्राथमिकता दी जाने लगी – तभी यह पतन शुरू हो गया।
क्या संस्कारों की कमी है?
बिल्कुल। शिक्षा और संस्कार दो पहिए हैं किसी भी मानव निर्माण के रथ के। दोनों में संतुलन आवश्यक है।
आज की बेटियों को ‘सशक्तिकरण’ के नाम पर सिखाया जा रहा है कि “तुम्हारा जीवन तुम्हारा है”, लेकिन ये नहीं सिखाया जा रहा कि “स्वतंत्रता का अर्थ स्वेच्छाचार नहीं है”।
बेटियाँ जब कम पढ़ी-लिखी थीं, तब भी वे अपने परिवार का मान रखती थीं। वे सीमित संसाधनों में भी स्नेह, त्याग और सेवा का अद्वितीय उदाहरण थीं। परंतु अब जब शिक्षा मिली, तो वह शिक्षा अहंकार, भौतिक लालसा और व्यक्तिगत इच्छाओं का पोषण कर रही है, न कि कर्तव्य और संवेदनशीलता का।
इतिहास के झरोखे से:
शायद जब समाज का प्रारंभिक स्वरूप बना होगा, तब स्त्री और पुरुष दोनों साथ शिक्षा ग्रहण करते होंगे। ऋषि-मुनियों के आश्रमों में गर्गी, मैत्रेयी, सावित्री जैसी विदुषियाँ ज्ञान में पुरुषों के समकक्ष थीं।
परंतु जब यह अनुभव हुआ कि कुछ लोग शिक्षा का दुरुपयोग कर रहे हैं – तब शिक्षा को सीमित कर दिया गया। क्योंकि ज्ञान एक हथियार है, और यह आवश्यक है कि यह हथियार योग्य और जिम्मेदार हाथों में हो।
आज भी वही समस्या पुनः उत्पन्न हो रही है। शिक्षा सभी के लिए उपलब्ध है, लेकिन उसका उपयोग किस प्रकार हो रहा है – यह प्रश्न अनुत्तरित नहीं रह सकता।
ताजा उदाहरण – किशोरी द्वारा मां की हत्या:
हाल ही में एक 15 वर्षीय किशोरी ने अपनी मां की हत्या अपने प्रेम संबंधों में बाधा बनने के कारण कर दी। उसके साथ उसके प्रेमी और उसके भाई ने भी मिलकर इस कृत्य को अंजाम दिया।
यह घटना न केवल कानून व्यवस्था पर सवाल उठाती है, बल्कि समाज के मानसिक और नैतिक स्वास्थ्य पर भी प्रश्नचिह्न लगाती है। इस उम्र में जहां बेटियों को संस्कार, मर्यादा, और मातृत्व की भावनाओं से परिचित होना चाहिए, वहां अगर वह हत्या जैसा घृणित कार्य कर रही हैं – तो ये चिंता की बात नहीं, चेतावनी है।
क्या समाधान है?
- संस्कार आधारित शिक्षा:
विद्यालयों में नैतिक शिक्षा और भारतीय संस्कृति के मूल्यों को पुनः शामिल करना होगा। रामायण, महाभारत, गीता, संत साहित्य को बच्चों की मानसिकता में बसाना होगा – न कि सिर्फ रट्टा लगवाना। - माता-पिता की भूमिका:
घर पहला विद्यालय होता है। माता-पिता को चाहिए कि वे न केवल बच्चों को आधुनिक सुविधाएँ दें, बल्कि उन्हें समय, स्नेह और दिशा भी दें। मित्र की तरह नहीं, बल्कि मार्गदर्शक की तरह। - सशक्तिकरण बनाम उच्छृंखलता:
स्त्री सशक्तिकरण का अर्थ यह नहीं कि बेटी किसी भी सीमा को लांघने लगे। सशक्तिकरण का अर्थ है – सही निर्णय लेने की क्षमता, समाज के प्रति उत्तरदायित्व, आत्म-संयम और आत्मसम्मान। - धर्म और संस्कृति की पुनर्स्थापना:
जब तक बेटियाँ अपनी आध्यात्मिक जड़ों से जुड़ी नहीं रहेंगी, तब तक उनके भीतर आत्मबोध विकसित नहीं होगा। धर्म को अंधविश्वास कहकर खारिज करना खतरनाक है, क्योंकि वही धर्म उनके जीवन को दिशा दे सकता है।
बेटियाँ हमारे समाज का स्तंभ हैं, और वे कल की माताएँ भी हैं। उनका पतन पूरे समाज के पतन का संकेत है। अगर हमें अपनी संस्कृति, अपने परिवार और अपने राष्ट्र की रक्षा करनी है, तो हमें अपनी बेटियों को केवल शिक्षित नहीं, बल्कि संस्कारित करना होगा।
तुलसीदास जी की वह पंक्ति आज फिर से हमें स्मरण करानी चाहिए –
“गुणहि पूजिए नहिं जाति केरा।”
यानी जो गुणी है, वही पूजनीय है – और यही गुण यदि बेटियों में होंगे, तो वे फिर से दोनों कुलों को पावन करेंगी।


































