1857 की क्रांति भारतीय इतिहास का वह मोड़ था जिसने ब्रिटिश हुकूमत की जड़ें हिला दी थीं। इस क्रांति में देश के राजा-महाराजाओं के साथ सबसे बड़ी भागीदारी अगर किसी वर्ण की थी, तो वह था — सवर्ण हिंदू समाज। खासकर ब्राह्मण, राजपूत, भूमिहार और मराठा समुदायों ने संगठित होकर ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध विद्रोह किया। अंग्रेजों ने इस विद्रोह का गहराई से विश्लेषण किया और एक भयावह निष्कर्ष निकाला — “भारत में जब तक सवर्ण हिंदू एकजुट हैं, तब तक इस देश को स्थायी रूप से गुलाम नहीं बनाया जा सकता।”
ब्रिटिश रणनीति: सवर्णों की रीढ़ तोड़ो, नीचली जातियों को गढ़ो
अंग्रेजों ने सवर्णों को मानसिक, सामाजिक और राजनीतिक रूप से तोड़ने की योजना बनाई। उन्होंने जानबूझकर दलित, पिछड़ा वर्ग, मुस्लिम और अन्य समुदायों के बीच यह नैरेटिव फैलाया कि “तुम्हारा शोषण सवर्णों ने किया है, तुम्हारा असली दुश्मन ब्राह्मण या ठाकुर है, अंग्रेज नहीं।”
इसके लिए उन्होंने फर्जी जातिगत उत्पीड़न की कहानियां गढ़ीं, पोटेंशियल विद्रोहियों को जमीनें, सरकारी पद और आर्थिक सहायता देकर “सवर्ण-विरोधी” भावना भड़काई। ब्रिटिश अभिलेखों और मिशनरी साहित्य में ब्राह्मणों को धोखेबाज, ठग, शोषक और रूढ़िवादी दिखाया जाने लगा। वहीं दूसरी तरफ, दलितों को ‘अबला’, ‘मूक शोषित’, ‘समाज का सबसे पीड़ित तबका’ के रूप में प्रस्तुत किया गया।
आज़ादी के बाद — अपराधबोध से ग्रस्त सवर्ण और विशेषाधिकारों से सुसज्जित दलित
1947 में भारत स्वतंत्र हुआ, लेकिन अंग्रेजों का फैलाया जातीय जहर संविधान निर्माण की प्रक्रिया में भी घुला रहा। संविधान सभा में डॉ. अंबेडकर को नायक बनाया गया, जबकि वास्तव में प्रारूप समिति के अध्यक्ष बी. एन. राव थे, और संविधान को कलमबद्ध करने वाले रायजादा कृपलानी थे। डॉ. राजेंद्र प्रसाद जैसे लोगों की भूमिका को हाशिये पर डाल दिया गया।
इसी दौरान दलित राजनीति ने “ऐतिहासिक उत्पीड़न” की काल्पनिक गाथा के आधार पर आरक्षण और विशेषाधिकारों की मांग उठाई। सवर्ण वर्ग, जो संवेदनशील और धर्मपरायण था, बिना प्रतिकार किए “पिछले पापों का प्रायश्चित” मानकर चुपचाप सहता रहा। लेकिन जिस ढाल (आरक्षण) को समाज उत्थान के लिए सौंपा गया था, उसी को तलवार बनाकर दलित राजनीति ने सवर्णों पर प्रहार शुरू कर दिया।
SC/ST एक्ट — एकपक्षीय कानून, जिसमें न्याय नहीं, बदले की भावना है
1989 में लागू हुआ SC/ST एक्ट एक ऐसा कानून बन गया जिसे “अदृश्य तलवार” कहा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। इस कानून के अंतर्गत दलित वर्ग का कोई व्यक्ति किसी सवर्ण पर आरोप लगाए — चाहे वह झूठा हो या साजिशन — तो सवर्ण को बिना जांच जेल भेजा जा सकता है।
इस एक्ट का misuse इतना अधिक हुआ है कि स्वयं सुप्रीम कोर्ट को कहना पड़ा कि इस कानून में prima facie जांच होनी चाहिए, गिरफ्तारी तुरंत नहीं। लेकिन इसके विरोध में “दलित संगठनों” ने पूरे देश को बर्बादी की कगार पर ला दिया और इससे अनुमान लग जाना चाहिए की दलित वर्ग कितना निर्दयी और क्रूर है, कि उसको जाँच सही से हो वास्तविक दोषी को दंड मिले से मतलब नहीं है, वल्कि सवर्णो को कैसे परेशान किया जाए इसी उद्देस्य में लगा हुआ है
आंकड़े क्या कहते हैं?
- NCRB के आंकड़ों के अनुसार, SC/ST एक्ट के अंतर्गत दर्ज मामलों में 70% से अधिक मामलों में आरोपी बरी हो जाते हैं।
- 2019 में सुप्रीम कोर्ट ने माना कि इस कानून का “मास इस्तेमाल” हो रहा है, और यह सामाजिक विभाजन को गहरा करता है।
फिर भी, कोई सवर्ण इन आंकड़ों को दिखाकर अपने पक्ष की बात नहीं रख सकता क्योंकि तत्काल “मनुवादी”, “जातिवादी”, “दलित विरोधी” का ठप्पा लग जाता है।
मानवाधिकार सिर्फ एक दिशा में?
आज हालत यह है कि एक दलित लड़का यदि सवर्ण लड़की से प्रेम कर ले, तो पूरा कानून, मानवाधिकार आयोग, मीडिया और राजनीतिक दल उसके साथ खड़े हो जाते हैं। लेकिन जब कोई सवर्ण युवक या लड़की किसी दलित के झूठे केस में फंसती है — तो कोई संगठन, कोई न्यायपालिका, कोई राजनीतिक दल उनके समर्थन में खड़ा नहीं होता।
आज समाज का यथार्थ यही है कि सवर्णों की बहन-बेटियां मानसिक दबाव में जी रही हैं क्योंकि झूठे केस में किसी का करियर, परिवार और इज्जत खत्म हो सकती है।
सच ये है कि दलित उतने मासूम नहीं और सवर्ण उतने जालिम नहीं
इतिहास को सिर्फ “दलितों के उत्पीड़न” के चश्मे से देखना एक बहुत बड़ी मूर्खता है। हर समाज में गलत लोग रहे हैं, लेकिन पूरे सवर्ण वर्ग को विलेन बनाकर प्रस्तुत करना एक सुनियोजित षड्यंत्र है।
- ब्राह्मणों ने शिक्षा दी, संस्कार दिए — लेकिन आज उन्हें ‘सवर्ण अत्याचारी’ कहा जाता है।
- राजपूतों ने देश की सीमाओं पर बलिदान दिए — लेकिन आज उन्हें ‘बलात्कारी’ के रूप में चित्रित किया जाता है।
- वैश्यों ने अर्थव्यवस्था को चलाया — आज उन्हें ‘शोषक पूंजीपति’ कहा जाता है।
वहीं दलित वर्ग, जो कभी समाज का हिस्सा था, अब राजनीति के हथियार बन चुका है।
अब समय आ गया है कि सवर्ण अपनी सुरक्षा के लिए संगठित हों
इतिहास का अपराधबोध अब और नहीं ढोना चाहिए। सवर्णों को खुद को संगठित करना होगा, वैचारिक स्तर पर भी और कानूनी स्तर पर भी। उन्हें संविधान के अंदर रहते हुए अपने हक की आवाज उठानी चाहिए:
- समान कानून की मांग करें
- SC/ST एक्ट के दुरुपयोग पर सख्त कानून बने
- आरक्षण की समयसीमा तय हो
- झूठे मामलों में दलितों को दंडित किया जाए
संरक्षण सवर्णों की भी ज़रूरत है, क्योंकि डर अब उनके दिल में है
आज सवर्ण वर्ग अपने देश में डरा हुआ है — बोलने से डरता है, न्याय मांगने से डरता है, यहां तक कि सच लिखने से भी डरता है।
पर यह डर समाज तोड़ेगा, देश कमजोर करेगा और कुपात्रों को ताकत देगा। इसलिए वक्त है खुलकर कहने का —
“हम दोषी नहीं हैं, और अब चुप भी नहीं रहेंगे।”


































