भारत की सामाजिक-राजनीतिक बहस में दो शब्द बार-बार उभरते हैं — मनुस्मृति और संविधान। एक को “ब्राह्मणवादी शोषण का प्रतीक” कहकर गाली दी जाती है, और दूसरे को “समानता का ग्रंथ” कहकर पूजा जाता है। लेकिन जब हम गहराई में जाकर तथ्यों और शास्त्रीय संदर्भों को देखते हैं, तो तस्वीर बिल्कुल उलट मिलती है।
मनुस्मृति सहित धर्मशास्त्रों में वर्ण व्यवस्था को कर्म और गुण पर आधारित बताया गया है, जबकि हमारे संविधान ने जाति को जन्म आधारित स्थायी पहचान में बदल दिया। यही कारण है कि आज एक IAS अधिकारी का बेटा भी OBC या SC/ST कहलाता है, भले ही वह करोड़पति हो। तो सवाल उठता है:
👉 अगर जन्म-आधारित व्यवस्था गलत है, तो दोष किसे देना चाहिए — मनुस्मृति को या संविधान को?
1. मनुस्मृति और कर्म-आधारित वर्ण व्यवस्था
सबसे पहले यह समझना ज़रूरी है कि धर्मशास्त्रों में वर्ण की परिभाषा क्या थी।
- मनुस्मृति (10/65):
“जन्मना जायते शूद्रः, संस्काराद् द्विज उच्यते।
वेदपाठात् भवेत् विप्रः, ब्रह्मज्ञानात् ब्राह्मणः॥”
(मनुष्य जन्म से शूद्र होता है, संस्कारों से द्विज कहलाता है, वेद-अध्ययन से विप्र और ब्रह्मज्ञान से ब्राह्मण बनता है।) - महाभारत, शांति पर्व (188):
“कर्मणा जायते शूद्रः, कर्मणा जायते द्विजः।”
(कर्म के आधार पर कोई शूद्र बनता है और कर्म से ही द्विज।) - इतिहास में उदाहरण:
- विश्वामित्र जन्म से क्षत्रिय थे, लेकिन तपस्या से ब्रह्मर्षि कहलाए।
 - वाल्मीकि जन्म से शिकारी, कर्म से महर्षि और महाकवि।
 - वेदव्यास मछुआरिन माता के पुत्र, फिर भी महाभारत के रचयिता और ऋषि।
 
 
इसका अर्थ यह है कि शास्त्रों ने जन्म आधारित स्थायित्व नहीं, बल्कि कर्म आधारित गतिशीलता (mobility) की अवधारणा दी थी।
2. अंग्रेजों की “जाति को स्थायी बनाने” की साज़िश
भारतीय समाज में जातियाँ थीं, पर वे लचीली और गतिशील थीं। कोई परिवार व्यापार छोड़कर सैनिक बन सकता था, कोई शूद्र तपस्या से ऋषि बन सकता था।
- 1871 से शुरू हुई British Census ने पहली बार जातियों को “स्थायी पहचान” बना दिया।
 - अंग्रेजों ने जातियों की लिस्ट बनाई और उसे सरकारी कागज़ों में स्थायी रूप से दर्ज कर दिया।
 - इससे समाज की गतिशीलता समाप्त हो गई, और जाति “जन्म से चिपकने वाली मुहर” बन गई।
 
3. संविधान और आरक्षण: जन्म आधारित पहचान की मजबूरी
संविधान में अनुच्छेद 15(4), 16(4), 46 के तहत SC, ST, और बाद में OBC के लिए आरक्षण दिया गया।
- यह पूरी तरह जन्म-आधारित पहचान पर आधारित है।
 - एक व्यक्ति चाहे कितना भी अमीर हो जाए, उसकी जाति वही रहेगी।
 - यहाँ तक कि एक IAS अधिकारी या MP/MLA के बच्चे को भी उसी जाति में गिना जाएगा।
 
👉 उदाहरण: IAS Kavya C. OBC Category से चुनी गईं। अब उनकी संतानें भी “OBC” कहलाएँगी, चाहे उनके पास कितना भी वैभव क्यों न हो। हाँ, Creamy Layer नियम के कारण आरक्षण नहीं मिलेगा, लेकिन पहचान तो वही रहेगी।
इसका मतलब है कि संविधान ने जाति को जन्म से स्थायी और अपरिवर्तनीय बना दिया है।
4. विरोधाभास: मनुस्मृति पर गाली, संविधान पर महिमा
यहीं सबसे बड़ा विरोधाभास है।
- मनुस्मृति: कहती है कि वर्ण कर्म और गुणों से बदलता है। यानी समाज में social mobility संभव है।
 - संविधान: कहता है कि जाति जन्म से तय है और वही हमेशा रहेगी।
 - इसके बावजूद, राजनीतिक पार्टियाँ और विचारधाराएँ संविधान की पूजा करती हैं और मनुस्मृति को “जन्म आधारित शोषण” कहकर गालियाँ देती हैं।
 
असल में यह राजनीतिक नैरेटिव है।
- संविधान की आलोचना करना राजनीतिक रूप से असंभव है, क्योंकि उसे “पवित्र ग्रंथ” बना दिया गया है।
 - लेकिन मनुस्मृति पर हमला करना आसान है, क्योंकि वह सनातन धर्म का ग्रंथ है और हिंदू समाज की जड़ों पर चोट करने का हथियार है।
 
5. राजनीति और वोट-बैंक का खेल
- स्वतंत्रता के बाद से आरक्षण को “सामाजिक न्याय” के नाम पर स्थायी राजनीतिक औजार बना दिया गया।
 - जाति आधारित राजनीति ने नेताओं को वोट दिलाए, इसलिए किसी ने यह सवाल नहीं उठाया कि “क्या जन्म आधारित पहचान को स्थायी बना देना उचित है?”
 - बल्कि उल्टा, वोट बैंक को मजबूत करने के लिए मनुस्मृति को गाली दी गई, ताकि हिंदू समाज की एकता को तोड़ा जा सके।
 
6. शास्त्रीय बनाम आधुनिक व्यवस्था की तुलना
| पहलू | मनुस्मृति / शास्त्र | संविधान / आधुनिक आरक्षण | 
|---|---|---|
| पहचान का आधार | कर्म और गुण | जन्म और जाति | 
| परिवर्तन की संभावना | संभव (शूद्र से ब्राह्मण तक) | असंभव (जन्मजात स्थायी) | 
| सामाजिक गतिशीलता | उच्च | शून्य | 
| आज़ादी | व्यक्ति अपनी मेहनत से आगे बढ़ सकता है | जाति की लिस्ट में स्थायी बंधन | 
| आलोचना का निशाना | “ब्राह्मणवादी ग्रंथ” कहकर हमला | “पवित्र संविधान” कहकर महिमा | 
7. असली सवाल
अब सवाल यह है कि अगर जन्म-आधारित पहचान अन्यायपूर्ण है, तो दोष किसे देना चाहिए?
- मनुस्मृति, जो कर्म आधारित गतिशीलता की बात करती है?
 - या संविधान, जिसने जाति को स्थायी रूप से जन्म से जोड़ दिया?
 
स्पष्ट है कि दोषारोपण गलत जगह किया जा रहा है।
भारत में जाति को लेकर आज जितनी भी राजनीति और वैचारिक लड़ाई है, उसका असली कारण आधुनिक संवैधानिक ढांचा है जिसने जाति को जन्म से स्थायी कर दिया।
मनुस्मृति जैसे शास्त्रों में तो सामाजिक गतिशीलता की गुंजाइश थी, लेकिन संविधान ने उसे बंद कर दिया।
👉 फिर भी, मनुस्मृति को गाली देना और संविधान की पूजा करना एक सुनियोजित राजनीतिक नैरेटिव है।
👉 यह नैरेटिव अंग्रेजों की Divide and Rule नीति का ही विस्तार है, जिसे आज की “सामाजिक न्याय” की राजनीति ने और गहराई दी है।
👉 असली “जन्म आधारित स्थायी व्यवस्था” का दोष मनुस्मृति को नहीं, बल्कि संविधान और आधुनिक आरक्षण तंत्र को दिया जाना चाहिए।
			





















		    











