“मनुवाद” शब्द सुनते ही कुछ चेहरों पर क्रोध, आंदोलन और नारों की झड़ी लग जाती है। वर्षों से यह प्रचारित किया जा रहा है कि मनुस्मृति ने समाज को जातियों में बाँटा, ब्राह्मणों को ऊँचा और शूद्रों को नीचा बताया, महिलाओं को अधिकार से वंचित किया और शोषण की नींव डाली। लेकिन क्या यह पूर्ण सत्य है? क्या यह इतिहास की निष्पक्ष व्याख्या है? या फिर यह सब उस वैचारिक घृणा का हिस्सा है जो सनातन व्यवस्था को तोड़ने के लिए गढ़ी गई? और इस सबके बीच — क्या वह ‘लोकतंत्र’ जिसमें आज हम जी रहे हैं, वास्तव में आमजन के लिए न्यायपूर्ण और समतावादी है?
मनुस्मृति की सच्चाई और गलत प्रचार:
- मनुस्मृति कोई शासकीय कानून नहीं थी, न किसी राज्य का संविधान।
- यह एक समाजविज्ञानी ग्रंथ था, जैसे आज के जमाने में कोई ‘थॉमस हौब्स’ या ‘रूसो’ के सिद्धांत होते हैं।
- भारत के किसी भी राजा ने इसे संहिता की तरह लागू नहीं किया।
- इसमें समय, स्थान और समाज के अनुसार विचार हैं – स्थायी नियम नहीं।
फिर भी, मनुस्मृति दहन दिवस, मनु प्रतिमा तोड़ने के अभियान, और ब्राह्मण-विरोध के नाम पर हजारों एकड़ जमीन पर कब्जा कर लेना — क्या यह वाकई ‘समानता की लड़ाई’ है या किसी एजेंडे का हिस्सा?
लोकतंत्र में असली अमानवीयता की झलक:
एक उदाहरण उत्तर प्रदेश का:
“मां की लाश लेकर बेटा 1 किमी पैदल चला क्योंकि विधायक की गाड़ी पुल से गुज़र रही थी, और एंबुलेंस को रोका गया।”
यह घटना सिर्फ एक लाचारी नहीं, एक करारा तमाचा है उस व्यवस्था पर, जो दावा करती है कि “यहाँ सब समान हैं।”
इस तरह की घटनाएँ भारत में आम होती जा रही हैं:
- महाराष्ट्र में एक दलित महिला की डिलीवरी एंबुलेंस में ही हो गई क्योंकि हॉस्पिटल का गेट नहीं खोला गया।
- बिहार में एक बाढ़ पीड़ित मां को सरकारी नाव नहीं दी गई, बच्चा कंधे पर रख कर नदी पार करनी पड़ी।
- राजस्थान में विधायक की फ्लीट निकलने तक एक घायल जवान सड़क पर पड़ा तड़पता रहा।
क्या यही है वह समता का समाज जिसकी कल्पना की गई थी?
असली सामंतवाद कहाँ है?
आज के लोकतांत्रिक सामंत – नेता, अधिकारी, और विशेष जातिगत लॉबी — वही कर रहे हैं जिसका आरोप मनुस्मृति पर लगाया गया था, लेकिन कहीं अधिक संगठित और कानूनी संरक्षण के साथ।
- SC/ST Act का राजनीतिक दुरुपयोग
- आरक्षण व्यवस्था का जातिगत वोट बैंक में रूपांतरण
- जनता के टैक्स का प्रयोग मूर्तियों, स्मारकों और जातीय गोलबंदी में
ये आज के ‘नव-सामंतवाद’ की पहचान हैं जो संविधान की शपथ लेकर संविधान को ही ठेंगा दिखाते हैं।
मनुस्मृति को क्यों कोसा गया?
क्योंकि यह सनातन व्यवस्था से जुड़ी है।
क्योंकि यह स्वतंत्र चिंतन और उत्तरदायित्व आधारित समाज की बात करती है – जन्म नहीं, कर्म पर आधारित समाज की।
लेकिन इससे नफरत इसलिए फैलाई गई ताकि:
- सनातन धर्म को बदनाम किया जा सके
- समाज को जातियों में बाँटकर वोटबैंक तैयार किया जा सके
- ‘दलित विमर्श’ के नाम पर एक नया विशेषाधिकार वर्ग खड़ा किया जा सके
तो अब सवाल यह उठता है – असली दोषी कौन है?
- मनुस्मृति? – जो लागू ही नहीं हुई?
- या वो तंत्र – जो संविधान लागू होने के बाद भी समानता, सेवा और न्याय देने में असफल रहा?
उत्तर स्पष्ट है — असली दोषी है वह लोकतांत्रिक सत्ता वर्ग जो संविधान की आड़ में सामंती प्रवृत्तियों को छिपाए बैठा है।
किसे बदलना चाहिए और किसे हटाना चाहिए?
अब समय आ गया है कि नफरत के प्रतीकों को नहीं, वर्तमान अन्यायकारी और वोटबैंक आधारित लोकतंत्र के राक्षसों को हटाने की आवश्यकता है।
बदलना है:
- वह सोच जो जातियों को वोट के लिए इस्तेमाल करती है
- वह व्यवस्था जो वंशवाद और भ्रष्टाचार को पोषित करती है
- वह प्रशासन जो वीआईपी कल्चर के नीचे आमजन को कुचल देता है
हटाना है:
- नकली समाजवादियों को
- संवैधानिक शपथ लेकर संविधान की आत्मा को बेचने वालों को
- उस मीडिया और शिक्षा को जो मनुस्मृति को काल्पनिक राक्षस बना कर असली शोषकों को छुपाती है
मनुस्मृति ने किसी को नहीं मारा, लेकिन लोकतंत्र की लाठी, लालफीताशाही, वीआईपी कल्चर और जातिगत राजनीति रोज आम आदमी को मारती है।
अब सवाल यह नहीं है कि मनुस्मृति ठीक थी या गलत,
सवाल यह है कि – क्या आज का लोकतंत्र वास्तव में न्याय दे रहा है?
अगर नहीं — तो दोष मत दो इतिहास को,
जिम्मेदार ठहराओ वर्तमान को, और बदलो भविष्य को।


































