“अलीगढ़ में सास दामाद के साथ भाग गई, इटावा के ऊसराहार में बहू प्रेमी ससुर के साथ, और भरथना में 55 साल की 6 बच्चों की मां अपने प्रेमी के साथ भाग गई…”
ये घटनाएं सिर्फ अखबारों की सनसनी नहीं हैं, बल्कि एक गंभीर सामाजिक परिवर्तन का संकेत हैं।
एक समय था जब भारतीय समाज में परिवार का ताना-बाना बहुत मजबूत माना जाता था। परंतु आज रिश्तों की यह बुनावट धीरे-धीरे कमजोर होती जा रही है। सवाल यह है कि आखिर ऐसी घटनाएं क्यों बढ़ रही हैं? कौन-से सामाजिक, पारिवारिक या मानसिक कारण हैं जिनकी वजह से रिश्तों की मर्यादा टूटती जा रही है?
1. बदलती सामाजिक संरचना और व्यक्तिगत स्वतंत्रता
आज का समाज पहले की तुलना में अधिक स्वतंत्रता-प्रिय और आत्मकेंद्रित हो गया है। महिला हो या पुरुष, दोनों की सोच में बदलाव आया है।
✅ नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे (NFHS-5) के अनुसार, भारत में 38% से अधिक महिलाएं और 43% पुरुष यह मानते हैं कि विवाह के बाहर भी भावनात्मक संतुष्टि जरूरी है।
जब रिश्तों में संवाद, अपनापन और सम्मान की कमी होती है, तो व्यक्ति बाहर उस “कनेक्शन” की तलाश करता है।
2. परिवारों में भावनात्मक दूरी और उपेक्षा
रिश्ते सिर्फ सामाजिक अनुबंध नहीं होते, वो भावनात्मक सुरक्षा का स्रोत होते हैं। कई बार पति-पत्नी के बीच सालों से संवाद नहीं होता, सिर्फ जिम्मेदारियों का बोझ होता है। ऐसे में जब कोई तीसरा व्यक्ति थोड़ा भाव, थोड़ा सुनना-समझना दे देता है, तो भावनात्मक झुकाव बढ़ जाता है।
🧠 “Ignored emotions never die, they get expressed in strange ways.” – Carl Jung
जब एक महिला या पुरुष भावनात्मक उपेक्षा से जूझता है, तो वह किसी ऐसे व्यक्ति की ओर आकर्षित हो सकता है जो उसे समझने की कोशिश करता है – भले ही वह व्यक्ति ससुर हो, दामाद हो या कोई पड़ोसी।
3. विवाह की संस्था में विश्वास की कमी
अब विवाह को ‘आजन्म बंधन’ की बजाय ‘समझौते’ की तरह देखा जाने लगा है। जब ‘इमोशनल कनेक्ट’ कमजोर हो जाता है, तो विवाह के बंधन में बंधे रहना बोझ लगने लगता है।
भारत में तलाक की दर अभी भी कम है (लगभग 1%), पर ‘भावनात्मक रूप से टूटे हुए रिश्तों’ की संख्या कहीं अधिक है। लोग तलाक नहीं लेते लेकिन रिश्तों से भावनात्मक रूप से अलग हो जाते हैं।
4. सोशल मीडिया और बाहरी प्रभाव
आजकल छोटे कस्बों और गांवों में भी सोशल मीडिया और मोबाइल की पहुँच ने लोगों को नई भावनात्मक और रोमांटिक संभावनाओं से जोड़ दिया है।
ऑनलाइन चैट्स, वीडियो कॉल्स और फिल्मी दुनिया की प्रेम कहानियां – इन सबने यह भ्रम फैलाया है कि “खुश रहना है तो नया रिश्ता बना लो, पुराने को छोड़ दो।”
5. समाज और कानून की असहायता
जब भरथना का पति थाने जाकर कहता है – “मेरी पत्नी 6 बच्चों को छोड़कर चली गई, कृपया तलाश कीजिए” – तो यह सिर्फ एक व्यक्ति की पीड़ा नहीं, यह एक समाज की टूटती आत्मा की पुकार है।
कानून ऐसे मामलों में सीमित है, जब दोनों पक्ष बालिग हों और संबंध ‘सहमति’ से बना हो। लेकिन बच्चों का भविष्य, बुजुर्गों की इज्जत, और परिवार की अस्मिता – इनका जवाब कौन देगा?
समाधान क्या हो सकता है?
- रिश्तों में संवाद बढ़ाएं: रोज़ का एक भावनात्मक संवाद रिश्तों को मजबूत करता है।
 - सम्मान दें, सिर्फ जिम्मेदारी नहीं: जीवनसाथी को केवल कामकाज का सहयोगी न समझें, भावनात्मक साथी भी बनें।
 - मन की बात कहें: अपने भीतर के अकेलेपन और असंतोष को साथी से साझा करें, बजाय बाहर सहारा खोजने के।
 - बच्चों को भावनात्मक शिक्षा दें: सिर्फ संस्कार नहीं, भावनाओं का भी सम्मान करना सिखाएं।
 
रिश्ते ईंट-पत्थर से नहीं, समझ और सहारे से बनते हैं। जब रिश्तों में संवाद मर जाता है, तो संवेदनाएं दरकने लगती हैं। और जब संवेदनाएं टूटती हैं, तब ही ऐसी खबरें अखबार की सुर्खियाँ बनती हैं।
“जब मन थक जाता है, तब शरीर गलत रास्ता ढूंढता है।”
— यही कारण है कि 55 की उम्र में भी दिल बचपन कर बैठता है।
अब वक्त है कि हम इन घटनाओं को केवल “चटपटी खबर” न समझें, बल्कि परिवार और समाज के लिए चेतावनी की घंटी मानें।
			





















		    











