भारत में धर्म और परंपरा केवल पूजा-पाठ तक सीमित नहीं हैं। वे एक जीवन शैली हैं, संस्कार हैं, और हजारों वर्षों की एक ऐसी परंपरा हैं, जिसमें आत्मा की शुद्धता, मन की पवित्रता और कर्म की शुचिता को सबसे ऊपर माना गया है। जब कोई व्यक्ति धर्म के कार्यों में, विशेषकर व्यासपीठ पर बैठकर भागवत कथा जैसे पवित्र आयोजन में अपनी झूठी पहचान के सहारे प्रवेश करता है, तो यह केवल सामाजिक धोखा नहीं होता – यह आध्यात्मिक विश्वासघात भी होता है।
कथा वाचकों की पहचान: छद्मता का पर्दाफाश कैसे हुआ?
यह प्रश्न वाजिब है कि जब ये कथावाचक बुलाए गए, जब उनकी बुकिंग हुई, कथा प्रारंभ हुई, तब किसी को कुछ संदेह क्यों नहीं हुआ? इसका उत्तर छिपा है हमारे समाज की एक खास प्रकृति में। भारत में जाति का प्रयोग सरकारी नौकरियों और आरक्षण व्यवस्था में होता है, मंदिरों में या धार्मिक आयोजनों में नहीं। कोई भी जब व्यासपीठ पर बैठता है, तो उसे उसकी जाति नहीं, उसके ज्ञान, संयम और संस्कार के आधार पर देखा जाता है।
लेकिन यहाँ प्रश्न है – इनकी पोल खुली कैसे?
जैसा विभिन्न स्रोतों से सामने आया है, रात्रि भोजन के समय इन कथावाचकों ने किसी महिला से अभद्र व्यवहार किया। यह न केवल एक सामाजिक अपराध था, बल्कि धार्मिक मर्यादा का भी उल्लंघन था। यही वह क्षण था जब उनकी भाषा, व्यवहार और ‘असली पहचान’ सामने आई। युवाओं ने विरोध किया, और प्रतिउत्तर में ये कथावाचक अपने यादव होने का गर्व दिखाने लगे – “हाथ मत लगाना, नहीं तो परिणाम भुगतने पड़ेंगे। हम यादव हैं।”
धार्मिक विश्वास के साथ छल: क्या यह क्षम्य था?
अब यहाँ से सवाल खड़ा होता है – क्या इन कथावाचकों का यह व्यवहार, जिन्होंने स्वयं को ब्राह्मण बताकर कथा का आयोजन करवाया, किसी भी दृष्टि से स्वीकार्य है?
इस बात को समझने के लिए एक उदाहरण लीजिए –
मान लीजिए कोई व्यक्ति फर्जी एमबीबीएस डॉक्टर बन जाए। वह इलाज भी कर ले, कुछ मरीजों को फायदा भी हो जाए। लेकिन अगर एक की मृत्यु हो जाए, और उसकी डिग्री नकली निकले, तो क्या उसे केवल अनुभव के आधार पर माफ़ कर दिया जाएगा?
नहीं।
भारत का संविधान और कानून स्पष्ट कहते हैं – यदि कोई व्यक्ति झूठी पहचान का प्रयोग करके किसी संस्था, पद, या कार्य का लाभ उठाता है तो वह दंडनीय है।
तो फिर वही मापदंड इस मामले में क्यों नहीं? कथा वाचक होना केवल शब्द बोलना नहीं होता – यह आत्मशुद्धि, संयम, ब्रह्मचर्य और सदाचरण की साधना है। यदि कोई व्यक्ति सिर्फ स्क्रिप्ट याद कर, टूटी-फूटी संस्कृत पढ़कर कथा करने लगे, तो यह आध्यात्मिक धोखाधड़ी है।
क्या ब्राह्मणों का विरोध उचित था?
इस पूरे प्रकरण में जब ब्राह्मण समाज को यह ज्ञात हुआ कि ये कथावाचक न तो ब्राह्मण थे, न योग्य थे, और ऊपर से अभद्र भाषा और जातीय दंभ से भरे हुए हैं – तो उनका रोष स्वाभाविक था।
इन्हीं कथा वाचकों की टूटी-फूटी संस्कृत पर पहले ही गांव की पंडिताईन को संदेह हुआ। जब उन्होंने इंगित किया, तो ये कथावाचक रावण और कंस के समान स्त्री को नीचा दिखाने वाली टिप्पणियाँ करने लगे। यही उनकी दुश्चिन्ता का पराकाष्ठा थी।
अब यदि ब्राह्मण समाज यह कहे कि –
“हमने तो इसलिए किसी और को बुलाया क्योंकि हमने पूर्ण विधि से पूजा नहीं की। इसलिए एक योग्य, संयमी, धर्मशास्त्र ज्ञाता को आमंत्रित किया। लेकिन जो आया, वह हमसे भी असंयमी, क्रोधी और दंभी निकला।”
तो क्या यह ग़लत है?
ब्राह्मणों ने न तो उनके साथ मारपीट की, न बदला लिया, बल्कि मनुस्मृति के अनुसार उनका ‘विप्र संस्कार’ कराने का प्रयास किया – जिसमें सबसे पहले शिखा (चोटी) बनाना आवश्यक होता है। यह पवित्र प्रक्रिया इन कथावाचकों को ब्राह्मण बनने का अवसर दे सकती थी – लेकिन वे तो आक्रोशित हो उठे।
वे समझ नहीं सके कि यह अपमान नहीं था, यह एक आत्मिक अवसर था। लेकिन उनके अंदर का जातीय दंभ और समाजवादी सत्ता की राजनीति से प्रेरित मानसिकता भारी पड़ी।
जातिवाद का झूठा नैरेटिव और सोशल मीडिया की उकसाहट
इन लोगों ने अपनी जाति के लोगों में जाकर इस पूरे मामले को “ब्राह्मणों की जातिवादी हिंसा” बताकर उछाला। लेकिन सच यह था कि स्वयं उन्होंने अपनी जाति को ढाल बनाकर छद्मता की थी। और फिर जब पकड़े गए, तो जातिवादी शोर मचाने लगे।
आज यही वर्ग हर जगह यही करता है – खुद को पीड़ित बताकर झूठी सहानुभूति बटोरना, असल में अपराधी होते हुए भी “वंचित” का चेहरा ओढ़ लेना। और दुर्भाग्य यह है कि सोशल मीडिया पर बिना सत्य जाने ही लोग ब्राह्मणों को दोषी बताने लगे।
धर्म के नाम पर पाखंड का अंत जरूरी है
जब कोई व्यक्ति भगवद कथा जैसी पवित्र विधा का व्यवसायीकरण करता है, जब वह फर्जी जाति बताकर दक्षिणा लेता है, जब वह साहित्य और साधना से विहीन होकर केवल पैसा और प्रभाव कमाने व्यासपीठ पर बैठता है, तो यह केवल सामाजिक संकट नहीं है – यह धर्म की हत्या है।
धर्म, सत्य, और सनातन परंपरा की रक्षा करना केवल ब्राह्मणों की जिम्मेदारी नहीं, पूरे समाज की है।
इस पूरे प्रकरण में ब्राह्मणों का विरोध न जातिवादी था, न अहंकार से प्रेरित। यह एक धार्मिक उत्तरदायित्व था – उस सनातन मर्यादा की रक्षा का प्रयास, जो छल, दंभ और पाखंड से बहुत ऊपर है।
यदि समाज ऐसे कृत्यों पर चुप रहा, तो आने वाला समय धर्म के नाम पर फर्जीवाड़ों, नकली बाबाओं और चालाक चातुर्य से व्यासपीठ हड़पने वालों का होगा।
इसलिए,
“न यह क्रोध था, न प्रतिशोध – यह धर्म रक्षा का स्वाभाविक उत्तर था।”


































