हाल ही में रिलीज़ हुई फिल्म धड़क 2 एक बार फिर समाज के भीतर छिपी जातिवाद की बहस को हवा दे गई है। लेकिन दिलचस्प बात यह है कि इस बार जातिवादी कहे जाने वाले लोग वही नहीं हैं, जिन्हें पहले “सवर्ण” कहकर निशाना बनाया जाता था। अब असली जातिवादी वे लोग बन गए हैं जो हर जगह जाति प्रमाण पत्र के आधार पर विशेष अधिकार, सरकारी सुविधाएँ और सामाजिक छूट चाहते हैं — और जिनके लिए किसी पर भी “जातिवाद” का आरोप लगाना मानो एक हथियार बन गया है।
आज का नया जातिवाद
अगर आप किसी ऐसे वर्ग के व्यक्ति पर जातिवादी होने का आरोप लगा दें, जिसे अपने फॉर्म में General (सामान्य वर्ग) लिखना पड़ता है, जिसे न तो सरकार से कोई छूट मिलती है, न आरक्षण का लाभ, न विशेष छात्रवृत्ति, न मुफ्त कोचिंग, न कोई NGO से सहायता — तो क्या आप वास्तव में जातिवाद मिटा रहे हैं, या उसे और गहरा कर रहे हैं?
सवाल उठता है, जातिवादी असल में होते कौन हैं?
जातिवादी वे होते हैं जो नेता से लेकर महापुरुष तक को जाति देखकर चुनते हैं, और जाति देखकर ही गालियाँ देते हैं। क्या आपने कभी सवर्णों को एकजुट होकर किसी को जाति के आधार पर गाली देते देखा है? शायद नहीं। लेकिन एक वर्ग जो खुद को “जातिवाद खत्म करने वाला” कहता है, वह खुलेआम उन्हीं लोगों को गालियाँ देता है जिनका सम्मान सामान्य वर्ग के लोग करते हैं, जिनको अपना मानते हैं।
भय और दूरी — सवर्णों की मजबूरी
आज सवर्णों और इन नए “जातिवादी” समूहों के बीच की दूरी कोई घमंड या घृणा से नहीं बनी है, बल्कि एक डर से बनी है। डर इस बात का कि अगर ये लोग आपके घर आएं और किसी विवाद में फँस जाएँ, तो वे तुरंत आपको “मनुवादी” या “अत्याचारी” घोषित कर सकते हैं।
सोचिए — मैंने किसी व्यक्ति को अपना घर किराए पर दिया। उसने मेरे परिवार की महिला सदस्यों के साथ गलत हरकत की। मैंने उसे पीटा, और अगले दिन पुलिस मुझे गिरफ्तार कर लेगी क्योंकि वह मेरे ऊपर Atrocity Act के तहत मामला दर्ज कर चुका होगा। उस समय मेरे घर की महिलाएँ पूरी तरह असुरक्षित होंगी, और मुझे अपराधी साबित कर दिया जाएगा — चाहे गलती उसकी हो।
कानूनी असमानता और एकतरफ़ा सुरक्षा
आज की स्थिति यह है कि यदि इस वर्ग का व्यक्ति आपको या आपके परिवार को हानि पहुँचाता है, तो भी यह “प्रतिशोध” माना जाएगा, क्योंकि कथित रूप से उसने “5000 साल का अत्याचार” झेला है। यानी एक झटके में आपकी पूरी ज़िंदगी बर्बाद हो सकती है, और आपको कोई न्याय नहीं मिलेगा। यह कानूनी ढाल अब कई लोगों के हाथ में एक हथियार बन चुकी है, जिसका इस्तेमाल व्यक्तिगत फायदे के लिए किया जा रहा है।
इसीलिए सवर्णों के लिए इनसे दूरी बनाए रखना मजबूरी है — न तो दोस्ती में, न ही रिश्तेदारी में ज़्यादा जुड़ाव रखना सुरक्षित लगता है।
आरक्षण और अवसर की असमानता
दूसरी बड़ी वजह है शिक्षा और नौकरी के अवसरों में असमानता। अगर मैं और यह व्यक्ति पूरे दिन साथ पढ़ाई करते हैं, एक जैसी मेहनत करते हैं, फिर भी जब प्रतियोगी परीक्षा का समय आता है, तो उसे आरक्षण का लाभ मिलेगा, और मुझे नहीं।
- मुझे 90 में से 90 अंक लाने होंगे, वो भी तय आयु सीमा में।
- उसे 45 अंक भी मिल जाएँ तो सरकारी नौकरी मिल सकती है।
- उसे सरकारी कोचिंग, हॉस्टल, भोजन, रहना सब मुफ्त मिलेगा।
- मुझे क्या मिलेगा? सिर्फ़ गालियाँ और “मनुवादी” का तमगा।
अब सोचिए — इस परिस्थिति में असली भेदभाव कौन कर रहा है? और क्यों मैं या मेरे जैसे सामान्य वर्ग के लोग इनसे दोस्ती रखें?
फिल्मों में एकतरफा चित्रण
दुःख इस बात का है कि फिल्मों में भी इस एकतरफ़ा पीड़ा को शायद ही कभी दिखाया जाता है। फिल्में अक्सर सिर्फ़ एक ही नैरेटिव पेश करती हैं — कि सारा अन्याय सवर्णों ने किया है और बाकी सभी पीड़ित हैं। लेकिन यह भी एक सच्चाई है कि आज सामान्य वर्ग के लोग भी अन्याय झेल रहे हैं, लेकिन उनकी कहानी किसी स्क्रीन पर नहीं आती।
धड़क 2 जैसी फिल्मों में अगर जातिवाद को ईमानदारी से दिखाना है, तो यह भी दिखाना चाहिए कि आधुनिक भारत में सवर्ण होना भी किस तरह एक संघर्ष बन चुका है।
सवर्णों का दर्द और समाज का संतुलन
सवर्ण आज दोहरी मार झेल रहे हैं —
- ऐतिहासिक दोषों का बोझ, जो उन्होंने व्यक्तिगत रूप से कभी नहीं किया।
- वर्तमान के अवसरों में असमानता, जो उन्हें और नीचे धकेल रही है।
अगर समाज को सच में जातिवाद मिटाना है, तो सभी वर्गों के दर्द को समझना और स्वीकारना होगा। यह मानना होगा कि किसी भी वर्ग को “स्थायी अपराधी” या “स्थायी पीड़ित” घोषित करना एक नया प्रकार का जातिवाद है।
सरकार और सिनेमा की ज़िम्मेदारी
अब समय आ गया है कि सरकार भी सामान्य वर्ग की पीड़ा को समझे।
- आरक्षण नीति की समीक्षा होनी चाहिए।
- कानूनी प्रावधानों में निष्पक्षता होनी चाहिए ताकि कोई भी कानून का दुरुपयोग न कर सके।
- फिल्मों और मीडिया में सभी पक्षों की कहानियों को समान जगह मिलनी चाहिए।
फिल्म निर्माताओं को चाहिए कि वे केवल राजनीतिक लाभ या वोट-बैंक की सोच से बाहर निकलकर सच्चाई के सभी पहलुओं को दिखाएं। तभी सिनेमा समाज को बांटने की बजाय जोड़ने का काम कर पाएगा।
निष्कर्ष
धड़क 2 ने भले ही एक प्रेम कहानी के बहाने जातिवाद की चर्चा छेड़ी हो, लेकिन यह चर्चा अधूरी है जब तक इसमें सभी वर्गों की वास्तविकताएँ शामिल न हों।
आज का जातिवाद केवल सवर्णों द्वारा किया गया भेदभाव नहीं है — यह उस मानसिकता का भी परिणाम है जो जाति प्रमाण पत्र के सहारे विशेष अधिकार चाहती है और दूसरों को अपराधी ठहराती है।
अगर हम सच में जातिवाद को मिटाना चाहते हैं, तो हमें दोनों तरफ की सच्चाई को देखना होगा, समझना होगा और कानून तथा समाज में संतुलन लाना होगा।


































