1. फिल्म का प्रमोशन और जातिगत नैरेटिव
- Dhadak 2 के मार्केटिंग कैंपेन ने शुरू से ही फिल्म को एक सोशल जस्टिस प्रोजेक्ट के रूप में पेश किया।
- ट्रेलर और पोस्टर्स में सिर्फ प्रेम कहानी नहीं, बल्कि जातिगत संघर्ष को हाइलाइट किया गया।
- फिल्म को “दलित सम्मान” का प्रतीक बताया गया, और प्रचार में बार-बार डॉ. भीमराव अंबेडकर के विचार का हवाला दिया गया।
- सोशल मीडिया पर #DalitLoveStory, #AmbedkariteCinema, और #CasteEquality जैसे हैशटैग ट्रेंड कराए गए।
- प्रचार के दौरान चंद्रशेखर आज़ाद ‘रावण’ का नाम जोड़ा गया, जिससे फिल्म को एक एक्टिविस्ट टच मिला।
- इंटरव्यू और पैनल डिस्कशन में मेकर्स ने साफ कहा कि ये फिल्म “दलित युवाओं की आवाज़” है।
2. बॉक्स ऑफिस प्रदर्शन
बजट: ₹55–60 करोड़ (लगभग)
भारत कलेक्शन: ₹18.5 करोड़ (लाइफटाइम)
ओवरसीज़ कलेक्शन: ₹4 करोड़
कुल वर्ल्डवाइड: ₹22.5 करोड़
घाटा: ₹30–35 करोड़ (लगभग)
| अवधि | कलेक्शन (भारत) |
|---|---|
| ओपनिंग डे | ₹3.1 करोड़ |
| ओपनिंग वीकेंड | ₹9.8 करोड़ |
| पहला हफ़्ता | ₹12.7 करोड़ |
| दूसरा हफ़्ता | ₹5.8 करोड़ |
| लाइफटाइम | ₹18.5 करोड़ |
ओवरसीज़ मार्केट में भी फिल्म का प्रदर्शन औसत से कम रहा।
ग़ल्फ़, नॉर्थ अमेरिका, और ऑस्ट्रेलिया जैसे क्षेत्रों में कास्ट ड्रिवन मार्केटिंग का कोई खास असर नहीं दिखा।
3. फ्लॉप होने के मुख्य कारण
(a) कंटेंट का ओवर-पॉलिटिकलीकरण
- आम दर्शक एक एंटरटेनिंग लव स्टोरी देखने आया था, लेकिन स्क्रीन पर उन्हें राजनीतिक भाषण और विचारधारा ज्यादा दिखी।
- इससे फिल्म का नैरेटिव भारी और उपदेशात्मक लगा।
(b) सीमित अपील
- मेकर्स ने एक खास जातिगत पहचान पर इतना जोर दिया कि बाकी दर्शकों ने खुद को फिल्म से कटा हुआ महसूस किया।
- पैन-इंडिया या यूनिवर्सल अप्रोच गायब रही।
(c) कमजोर कहानी और स्क्रीनप्ले
- क्रिटिक्स ने कहा कि फिल्म में भावनात्मक गहराई और कैरेक्टर बिल्ड-अप की कमी है।
- क्लाइमैक्स और म्यूजिक भी पहले पार्ट जितना असरदार नहीं था।
(d) सोशल मीडिया हाइप vs ग्राउंड रियलिटी
- ट्विटर पर #BoycottBollywood और #SupportDhadak2 दोनों ट्रेंड हुए, लेकिन थिएटर में पब्लिक कम ही पहुंची।
- डिजिटल एक्टिविज़्म को बॉक्स ऑफिस में कन्वर्ट करने की रणनीति फेल रही।
4. सीख और भविष्य के लिए सबक
- कंटेंट पहले, वैचारिक टैग बाद में – जब तक कहानी और सिनेमैटिक क्वालिटी मजबूत न हो, सिर्फ वैचारिक मार्केटिंग से सफलता नहीं मिलती।
- पॉलिटिक्स + एंटरटेनमेंट का बैलेंस जरूरी – ओवर-एजेंडा फिल्में आम दर्शकों को दूर कर देती हैं।
- टार्गेट ऑडियंस को सीमित न करें – सिर्फ एक सामाजिक पहचान को पकड़कर बाकी दर्शकों को खोना बिज़नेस के लिए घातक है।
- सोशल मीडिया हाइप वास्तविक दर्शकों में बदलना मुश्किल है – ट्रेंड और ट्वीट टिकट काउंटर पर दर्शक की गारंटी नहीं हैं।
आज सवर्ण युवा ऐसे नकारत्मक फिल्मे देखना नहीं चाहता है और जातिप्रमाणपत्र धारी अपना पैसा खर्च करने से पहले ये आस्वस्त होना चाहता है की पैसा उसके जातिभाई को जा रहा है या नहीं, ये वर्ग भी अब उतना ही कट्टर हो चूका है जितना सर तन की बात करने वाले लोग है, समाज को सर्कार को इस तरफ थोड़ा ध्यान देना चाइये


































