लोकतंत्र का बुनियादी सिद्धान्त है—जनता का पैसा, जनता के लिये। किन्तु जब उच्च अधिकारियों की पढ़ाई‑लिखाई, विदेश दौरे और आलीशान सुविधाएँ उसी जनता के टैक्स से चलें, और बदले में पारदर्शिता व जवाबदेही न दिखे, तो स्वाभाविक ही प्रश्न उठता है—क्या यह लोकतंत्र है या सुनियोजित लूट‑तंत्र?
1. अध्ययन अवकाश (Study Leave) के नियम क्या कहते हैं?
- अखिल भारतीय सेवा (IAS, IPS, IFS) के अफसर दो वर्ष तक का सवेतन अध्ययन‑अवकाश प्राप्त कर सकते हैं। इसके लिये न्यूनतम 9 वर्ष सेवा (पूर्वोत्तर कैडर में 6 वर्ष) जरूरी है।(testbook.com)
- पूरा वेतन और कई बार भत्ता/फीस भी मिलता है; विदेश शिक्षा हो तो सरकार प्रायोजित खर्च सम्भव है, बशर्ते तीन‑पाँच वर्ष की बॉण्ड सेवा का वचन देना पड़े।(gconnect.in, retailstudytour.com)
- नियम 1960 के अनुसार अफसर, वेतन के साथ‑साथ अन्य “रिम्यूनरेशन” भी रख सकता है, यदि सरकार अनुमति दे दे।(dopt.gov.in)
यानी—तनख़्वाह, यात्रा, वजीफ़ा और कभी‑कभी फीस तक—सब कुछ टैक्सपेयर के ऊपर!
2. नियमों का ‘उपयोग’ या दुरुपयोग?
सरकार ने 2023‑24 में विदेश‑अध्ययन प्रस्तावों की समीक्षा कड़ी की, क्योंकि कई अफसर “अप्रासंगिक कोर्स” ले रहे थे।(government.economictimes.indiatimes.com) फिर भी, दो बड़े ट्रेंड दिखते हैं:
| ट्रेंड | हकीकत |
|---|---|
| अभिजात शिक्षण संस्थान | हार्वर्ड, कैम्ब्रिज, LSE जैसी जगहों पर MPA/MPP; सम्पूर्ण ख़र्च अक्सर सरकारी |
| देश में MBA/LLM | निजी या राज्य विश्वविद्यालय, फीस कभी खुद, पर वेतन पूरा जनता से |
3. कुछ ताज़ा‑चर्चित मामले
| अधिकारी | विवाद | अध्ययन-अवकाश स्थिति |
| बी. चन्द्रकला (IAS) | अवैध खनन में CBI जांच (2019) के बीच MBA पाठ्यक्रम, सवेतन छुट्टी | (hindustantimes.com, hindustantimes.com) |
| पुजा खेडकर (IAS प्रशिक्षु) | VIP नंबर प्लेट, सरकारी बंगले की माँग; प्रशिक्षण रोकना पड़ा | (timesofindia.indiatimes.com) |
इन उदाहरणों ने जनता में रोष बढ़ाया—जाँच झेल रही अफ़सर को सैलरी‑छात्रवृत्ति दोनों, आम आदमी को न्याय नहीं!
4. टैक्सपेयर पर वास्तविक बोझ
- दोगुना व्यय
- वेतन + भत्ते (24 माह)
- संभावित ट्यूशन/विदेश‑भत्ता
- डोमिनो प्रभाव
- पद रिक्त होने से नया अधिकारी तैनात; अतिरिक्त वेतन बोझ
- अप्रत्यक्ष लागत
- निर्णय‑निर्माण ठप; फाइलें अटकतीं, परियोजनाएँ देर से पूरी
इसे समझने के लिये कल्पना करें—यदि 500 अफसर हर साल औसतन ₹ 50 लाख के कुल पैकेज पर अध्ययन करें, तो ₹ 2500 करोड़ सीधे सरकारी खज़ाना छोड़ देते हैं।
5. लोकतंत्र के सिद्धान्त पर चोट
- जवाबदेही का अभाव – नागरिक RTI डालें तो “निजी सूचना” कहकर टाल दिया जाता है।
- नैतिक द्वंद्व – जिन पर भ्रष्टाचार के आरोप हों, वे अध्ययन‑अवकाश से इमेज मेकओवर कर लौटते हैं।
- समान अवसर का प्रश्न – क्या एक साधारण कर्मचारी इतनी रियायत पाता?
6. सुधार के रास्ते
| प्रस्ताव | क्यों ज़रूरी? |
|---|---|
| स्टडी‑लिव आयोग | सभी प्रस्तावों की स्वतंत्र समीक्षा; कोर्स की प्रासंगिकता, लागत‑लाभ विश्लेषण |
| खर्च‑पारदर्शिता पोर्टल | किस अफसर ने कहाँ, कितनी फीस वसूली; जनता ऑनलाइन देख सके |
| ‘अंडर‑इंक्वायरी मोराटोरियम’ | CBI/ED जांचाधीन अधिकारी को study leave नहीं |
| आंशिक अनुदान मॉडल | विदेश फीस का अधिकतम 50 % ही सरकारी; शेष व्यक्तिगत निवेश |
| पोस्ट‑कोर्स बंधन | तीन की बजाय पाँच वर्ष सेवा‑बॉण्ड; न तो निजी क्षेत्र में प्रतिनियुक्ति, न तुरंत राजनीतिक पद |
जब लोकतंत्र में चुनिंदा लोग नियमों का लाभ उठाकर लोकधन पर ऐश करते हैं, जबकि आम करदाता पेट्रोल‑टैक्स, GST और महँगाई की मार झेलता है, तो व्यवस्था पर विश्वास डगमगाता है। अध्ययन‑अवकाश मूलतः क्षमता‑वृद्धि के लिये था; उसे “विश्राम‑अवकाश” या “स्कैंडल‑एस्केप प्लान” बनने देना सीधी‑सी बात “लूट‑तंत्र” को न्योता देना है।
जनता को चाहिए कि वे RTI, सोशल‑मीडिया, लोकलेखा समितियों के माध्यम से सवाल उठाएँ—किसने पढ़ाई, किसकी कमाई से पढ़ाई? तभी यह तंत्र सच‑मुच ‘जनता का, जनता के लिये, जनता द्वारा’ बनेगा, न कि कुछ खास लोगों का “मौज‑महल”।


































