9 जुलाई 2025 को पूरे देश में एक बार फिर “भारत बंद” का आयोजन किया गया। बिजली कंपनियों के निजीकरण, श्रम कानूनों में संशोधन, बेरोजगारी, महंगाई, पुरानी पेंशन योजना और नागरिकता जैसे मुद्दों को लेकर यह बंद बुलाया गया। इसमें 10 केंद्रीय ट्रेड यूनियनों और किसान संगठनों की भागीदारी रही। लेकिन यदि हम घटनाक्रमों की परतें खंगालें, तो यह आंदोलन एक बार फिर उसी पुरानी पटकथा का हिस्सा लगता है – विपक्ष द्वारा जनहित के नाम पर सरकार की छवि को धूमिल करने का सुनियोजित प्रयास।
1. कभी सैनिकों की चिंता, कभी अग्निपथ का डर फैलाना
2022 में जब मोदी सरकार ने “अग्निपथ योजना” की शुरुआत की, तब पूरे देश में एक जबरदस्त विरोध किया गया। ट्रेनें जलाई गईं, स्टेशन फूंके गए, और युवाओं को भड़काया गया कि “सरकार फौज को ठेके पर लेना चाहती है”। विपक्ष ने युवाओं के मन में ये भय भर दिया कि 4 साल बाद उनका क्या होगा।
लेकिन सवाल ये है कि क्या सैनिकों की चिंता करने वालों ने कभी बताया कि अग्निपथ में ग्रेच्युटी, प्रशिक्षण और नागरिक रोजगार की संभावनाएं भी दी गई थीं? नहीं। उन्हें बस मुद्दा चाहिए था मोदी सरकार को घेरने का।
2. किसानों की आड़, राजनीति की ज़िद – तीन कृषि कानून आंदोलन
2020-21 के तीन कृषि कानूनों के खिलाफ हुआ आंदोलन याद करिए। हजारों की भीड़ दिल्ली की सीमाओं पर डटी रही। विपक्षी नेताओं का वहाँ तांता लग गया। क्या वह कानून किसानों के खिलाफ थे? नहीं। वे कानून तो मंडियों के बाहर किसानों को वैकल्पिक बाजार और अनुबंध आधारित बिक्री की सुविधा दे रहे थे।
पर विपक्ष ने इसे किसान बनाम सरकार का मुद्दा बना दिया। “अडानी-अंबानी को लाभ मिलेगा” जैसे खोखले नारों से ग्रामीण जनमानस को गुमराह किया गया। कानूनों की वापसी विपक्ष के लिए ‘राजनीतिक विजय’ थी, न कि किसानों की जीत।
3. छात्रों को मोहरा बनाना – पेपर लीक और भर्ती घोटालों का राजनीतिकरण
हाल ही में कई राज्यों में परीक्षा पेपर लीक की घटनाएं हुईं – चाहे वह पटवारी हो, शिक्षक भर्ती या SSC परीक्षाएं। हर बार विपक्ष ने “केंद्र सरकार विफल” का नैरेटिव चलाया, जबकि पेपर लीक की घटनाएं अक्सर राज्य स्तर पर होती हैं।
राजस्थान, बिहार, बंगाल जैसे राज्यों में जब छात्रों की नौकरी से जुड़ी समस्याएं उठीं, तब वहाँ की सरकारों पर विपक्ष ने एक शब्द नहीं कहा। लेकिन अगर UPSC में कोई तकनीकी दिक्कत भी हुई, तो उसे ‘मोदी सरकार के खिलाफ छात्रों का असंतोष’ बताने में विपक्ष देर नहीं करता।
4. महिलाओं की सुरक्षा पर पाखंडपूर्ण राजनीति
जब भी देश में कोई बड़ी महिला सुरक्षा की घटना होती है, विपक्ष ‘बेटी बचाओ’ का नारा लेकर कूद पड़ता है। मणिपुर की दुखद घटना पर संसद तक ठप करा दी गई, लेकिन राजस्थान, बंगाल और केरल में हुए बलात्कार और महिला अत्याचारों पर विपक्ष का मौन संदेह पैदा करता है।
विपक्ष की नीयत साफ नहीं होती – उन्हें महिला सुरक्षा से अधिक मोदी विरोध का अवसर चाहिए होता है।
5. बिजली कंपनियों का निजीकरण – जनता या यूनियन का स्वार्थ?
9 जुलाई का भारत बंद मुख्यतः बिजली वितरण कंपनियों के निजीकरण के खिलाफ बुलाया गया। पर क्या आपने सोचा है कि निजीकरण का सीधा उद्देश्य है – सेवाओं में सुधार, चोरी पर रोक और तकनीकी आधुनिकीकरण।
सरकार ये निजीकरण उपभोक्ता सेवाओं को बेहतर बनाने के लिए कर रही है, लेकिन यूनियन इसे “रोज़गार छीनने” के रूप में पेश कर रही है। विपक्ष इसमें कूद पड़ता है, और इसे “जनविरोधी नीति” बताता है।
असल में ये पुरानी यूनियन संस्कृति को बचाने की जिद है, न कि जनता का भला। हर सुधार का विरोध करना जैसे विपक्ष की पहचान बन गई है।
6. नागरिकता (CAA) पर भ्रम फैलाना – देशद्रोह को समर्थन?
जब सरकार ने CAA (नागरिकता संशोधन अधिनियम) लाया, तो उसका उद्देश्य था – पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान से सताए गए अल्पसंख्यकों को नागरिकता देना।
पर विपक्ष ने उसे ‘मुस्लिम विरोधी कानून’ बताकर देशभर में दंगे भड़काए। शाहीन बाग आंदोलन से लेकर दिल्ली दंगे तक, हर जगह विपक्षी नेताओं की भूमिका संदिग्ध रही।
सवाल है – क्या विपक्ष सच में अल्पसंख्यकों की सुरक्षा चाहता है या उन्हें डराकर वोट बैंक मजबूत करना?
7. श्रम कानून सुधार – संगठनों का डर और विपक्ष की हवा बाजी
चार नए श्रम कोड लाने का उद्देश्य था –
- एक देश, एक श्रम कानून
- उद्योगों के लिए सरलता
- मजदूरों को न्यूनतम वेतन और सामाजिक सुरक्षा
लेकिन यूनियनों को यह डर है कि उनका दबदबा खत्म होगा, और विपक्ष इस डर को हवा देता है।
श्रमिकों के कल्याण को लेकर मोदी सरकार पहले भी ई-श्रम पोर्टल, EPFO रिफॉर्म्स, PF ब्याज जैसी योजनाएं ला चुकी है – पर इन पर विपक्ष मौन रहता है।
8. अभिव्यक्ति की आज़ादी के नाम पर अराजकता
अभी हाल ही में विपक्षी छात्र संगठनों ने ‘भारत जोड़ो’ के नाम पर विश्वविद्यालयों में नारेबाजी, देशविरोधी गतिविधियों और तोड़फोड़ को अभिव्यक्ति की आज़ादी कहा।
JNU, AMU और Jadavpur जैसे संस्थानों को ‘मोदी विरोध के गढ़’ में बदलने की कोशिश की जाती है। सरकार यदि नियमों की बात करे, तो “तानाशाही” कहकर बदनाम किया जाता है।
9. हर बंद, हर आंदोलन – सिर्फ चुनावी रणनीति?
चुनाव जैसे-जैसे पास आते हैं, विपक्ष को कभी गरीब याद आता है, कभी बेरोजगार, कभी किसान, कभी सैनिक, कभी महिलाएं। ये ‘आंदोलन’ असल में जनता को बरगलाने का शातिर तरीका हैं।
कांग्रेस हो या वाम दल, इनकी कोशिश सिर्फ ये होती है कि देश की जनता मोदी सरकार की विकास योजनाओं से ध्यान हटाए।
10. निष्कर्ष – विपक्ष की नियत पर सवाल उठना लाज़मी है
भारत बंद, आंदोलन, प्रदर्शन – ये लोकतंत्र के स्वस्थ साधन हैं। लेकिन बार-बार केवल वही चेहरे, वही संगठन, वही एजेंडा – और हर बार “सरकार फेल” का नैरेटिव?
क्या यह संयोग है या रणनीति?
- हर नीति का विरोध
- हर सुधार को जनता विरोधी बताना
- हर पीड़ित वर्ग को मोहरा बनाना
ये दर्शाता है कि विपक्ष का लक्ष्य राष्ट्र निर्माण नहीं, बल्कि सत्ता की भूख है।
मोदी सरकार के हर प्रयास को विफल बताने की ये ‘छद्म राजनीति’ अब जनता भी समझने लगी है।
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