हाल ही में उत्तर प्रदेश में एक शिक्षक ने गीत गाकर बच्चों को जागरूक करने के नाम पर कहा कि –
“मानव बनो, शिक्षित बनो… लेकिन कांवड़ मत ले जाओ।”
पहली नज़र में यह कथन ‘प्रगतिशीलता’ और ‘शिक्षा’ की आड़ में कहा गया प्रतीत होता है। लेकिन अगर थोड़ा गहराई से सोचें, तो इसमें छुपा हुआ एक गहरा पूर्वाग्रह और पक्षपात दिखाई देता है।
सवाल उठता है – कांवड़ यात्रा से आखिर दिक्कत क्या है?
कांवड़ यात्रा साल में एक बार आने वाला एक आध्यात्मिक और सांस्कृतिक पर्व है, जिसमें लाखों श्रद्धालु भगवान शिव के प्रति अपनी भक्ति प्रकट करते हैं। यह किसी पर थोपा गया कर्मकांड नहीं, बल्कि स्वेच्छा से की जाने वाली आस्था की यात्रा है।
तो फिर इस शिक्षक को इसमें समस्या क्यों है?
- क्या समस्या इसलिए है कि इसमें बड़ी संख्या में हिंदू जुटते हैं?
- या समस्या यह है कि यह हिंदू संस्कृति और परंपरा को जीवित रखता है?
अगर समस्या सिर्फ हिंदू धर्म से है तो ऐसी मानवता खोखली और पाखंडी है।
क्या यह मानवता का संदेश है या छुपा हुआ एजेंडा?
अगर कोई वास्तव में ‘मानवता’ की बात करता है तो उसे सभी धर्मों के आयोजनों पर समान दृष्टि रखनी चाहिए।
- मुहर्रम पर बड़े जुलूस निकलते हैं, तब ऐसे गीत क्यों नहीं गाए जाते कि “मानव बनो, शिक्षित बनो लेकिन मातम के जुलूस मत निकालो”?
- क्रिसमस पर लाखों लोग एक जगह इकट्ठा होते हैं, तब क्यों नहीं कहा जाता “बाइबिल मत पढ़ो, बस इंसान बनो”?
- गुरु पर्व पर गुरुद्वारों में भारी भीड़ होती है, तब ऐसे संदेश क्यों नहीं दिए जाते?
केवल हिंदू त्योहारों और आस्थाओं को निशाना बनाना क्या एक सोची-समझी साज़िश नहीं लगता?
आस्था को अंधविश्वास बताने का खेल क्यों?
भारत का संविधान हर नागरिक को अपने धर्म और आस्था को मानने और पालन करने का मौलिक अधिकार देता है।
लेकिन जब किसी धर्म को बार-बार अंधविश्वास, पाखंड और अशिक्षा से जोड़ा जाए, तो उसके अनुयायियों के मन में हीन भावना पैदा होती है।
- जैन धर्म में संथारा होता है – यानी स्वेच्छा से उपवास कर मृत्यु को प्राप्त करना।
- बौद्ध धर्म में भी अनेक कर्मकांड हैं।
- इस्लाम और ईसाई धर्म में भी धार्मिक रीतियों को लेकर सख्त मान्यताएं हैं।
लेकिन उन पर कोई सवाल नहीं उठाता। सवाल सिर्फ और सिर्फ हिंदू धर्म पर उठाए जाते हैं।
क्यों?
क्यों निशाना सिर्फ हिंदू धर्म पर?
यहाँ यह समझना ज़रूरी है कि हिंदू धर्म पर प्रहार करने से किसी को भी समाज में प्रगतिशील दिखने का सर्टिफिकेट मिल जाता है।
- मीडिया इसे ‘सुधारवादी’ कहकर दिखाता है।
- तथाकथित सेकुलर विचारक इसे “जागरूकता फैलाना” कहकर सराहते हैं।
- लेकिन अगर यही बात किसी दूसरे धर्म पर कही जाए, तो उसे “नफ़रत फैलाने वाला बयान” कहा जाएगा।
यानी मानवता की बातें सिर्फ हिंदुओं को कटघरे में खड़ा करने तक सीमित हैं।
क्या यह सोची-समझी साज़िश नहीं?
इतिहास गवाह है कि भारत में लंबे समय से एक चाल चली जा रही है –
- हिंदू त्योहारों और आस्थाओं को अंधविश्वास बताओ।
- युवाओं को समझाओ कि ये सब पुरानी, बेकार और अशिक्षित लोगों की आदतें हैं।
- धीरे-धीरे उनके मन में अपने ही धर्म के प्रति हीनभावना भर दो।
- और अंत में उन्हें धर्म से विमुख कर दो।
यही कारण है कि जब कांवड़ यात्रा पर सवाल उठता है, तो वह सिर्फ एक त्योहार का विरोध नहीं होता, बल्कि पूरे हिंदू समाज की आस्था को कमजोर करने का प्रयास होता है।
शिक्षक की भूमिका – शिक्षा या विचारधारा?
एक शिक्षक का काम होता है –
- बच्चों को सही ज्ञान देना
- उनमें तार्किक सोच विकसित करना
- लेकिन साथ ही उनकी जड़ों और संस्कृति का सम्मान करना सिखाना
लेकिन अगर शिक्षक ही अपने निजी पूर्वाग्रह से बच्चों को अपनी ही संस्कृति से दूर करने लगें, तो यह शिक्षा नहीं, बल्कि विचारधारा थोपना कहलाता है।
कांवड़ यात्रा को समझने की ज़रूरत
कांवड़ यात्रा सिर्फ एक धार्मिक आयोजन नहीं है। यह –
- समर्पण और सेवा का प्रतीक है
- गाँव-गाँव से लोग एक साथ जुड़ते हैं, समाज में सामूहिकता और एकता पैदा होती है
- यह शारीरिक अनुशासन और संयम का अभ्यास है
- और सबसे बड़ी बात – यह अपने जीवन में भक्ति, धैर्य और तपस्या का महत्व सिखाता है
क्या इन मूल्यों को नकारना ही आधुनिकता है?
हिंदू धर्म को ही क्यों ‘अंधविश्वास’ कहा जाता है?
हर धर्म में कुछ न कुछ कर्मकांड होते हैं।
फिर भी जब बात हिंदू धर्म की आती है, तो उसे “पिछड़ा हुआ”, “अशिक्षितों का धर्म” कहकर प्रचारित किया जाता है।
- क्या इसलिए क्योंकि हिंदू धर्म किसी एक पैगंबर या किताब पर आधारित नहीं है, इसलिए इसे तोड़ना आसान है?
- या इसलिए कि हिंदू धर्म की आलोचना करने पर कोई हिंसक प्रतिक्रिया नहीं होती, इसलिए लोग इसे “सॉफ्ट टारगेट” मान लेते हैं?
हिंदुओं को हीनभावना में क्यों डाला जाता है?
जब बार-बार कहा जाता है कि –
“अगर तुम कांवड़ ले जाते हो तो तुम पिछड़े हो, अंधविश्वासी हो”
तो धीरे-धीरे समाज का युवा वर्ग सोचने लगता है कि शायद वाकई ऐसा है। यह आत्मग्लानि और आत्मद्वेष की भावना पैदा करता है।
और यही इस साज़िश का सबसे बड़ा उद्देश्य है –
अपने धर्म से दूर करो, फिर दूसरे विचार थोपो।
निष्कर्ष – आस्था पर प्रहार बंद होना चाहिए
मानवता की बातें तब सही होती हैं जब वह सभी धर्मों पर समान रूप से लागू हों।
लेकिन जब मानवता के नाम पर सिर्फ हिंदू आस्थाओं को बदनाम किया जाए, तो वह मानवता नहीं, पक्षपात और एजेंडा है।
- हर व्यक्ति को अपने धर्म और विश्वास को मानने का संवैधानिक अधिकार है।
- कांवड़ यात्रा को रोकना या उसका मज़ाक उड़ाना किसी का अधिकार नहीं है।
- अगर वास्तव में प्रगतिशीलता चाहिए तो सबकी आस्था का सम्मान करना सिखाना होगा।
तो सवाल वही है – साल में एक बार होने वाले हिंदू त्योहार से इतनी दिक्कत क्यों?
अगर दिक्कत सिर्फ हिंदुओं से है तो मानवता की बातें खोखली हैं।
अगर सभी धर्मों से है, तो फिर सवाल सिर्फ हिंदुओं पर ही क्यों उठते हैं?
यह समय है कि हिंदू समाज अपनी आस्था पर गर्व करे, हीनभावना को त्यागे और ऐसे छुपे हुए एजेंडों को पहचाने।


































