अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस: सम्मान का वास्तविक आधार कर्म हो, न कि पूर्वाग्रह
महिला दिवस नारी शक्ति के उत्थान, सम्मान और उनके अद्वितीय योगदान को स्वीकारने का दिन है। यह अवसर महिलाओं के अधिकारों, उनकी स्वतंत्रता और समानता की बात करने के लिए मनाया जाता है। लेकिन इस संदर्भ में एक गंभीर विचारणीय प्रश्न यह भी है कि क्या समाज में पुरुषों को केवल अपराधी या शोषक के रूप में प्रस्तुत करना उचित है? क्या वास्तव में पुरुषों ने नारी को हमेशा अपमानित ही किया है, या यह कुछ तथाकथित महिलावादी महापुरुषों द्वारा गढ़ी गई एक मानसिकता है?
भारत की परंपरा और नारी सम्मान
भारत की प्राचीन संस्कृति में नारी को सदैव पूज्य माना गया है। “यत्र नार्यस्तु पूज्यंते रमंते तत्र देवता” अर्थात जहाँ नारी का सम्मान होता है, वहाँ देवताओं का वास होता है। हमारे वेदों, उपनिषदों और महाकाव्यों में नारी को एक आदर्श, शक्ति और प्रेरणा का स्रोत माना गया है। दुर्गा, सरस्वती और लक्ष्मी जैसी देवियों की पूजा इस बात का प्रमाण है कि नारी को केवल सहायक नहीं बल्कि एक नेतृत्वकर्ता और सृजनकर्ता के रूप में देखा गया है।
महाभारत में गार्गी और मैत्रेयी जैसी विदुषी नारियों का उल्लेख मिलता है, जिन्होंने अपने ज्ञान और तर्क से समाज को दिशा दी। झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई, सावित्रीबाई फुले और अहिल्याबाई होल्कर जैसी महिलाओं ने भी इतिहास में अपने पराक्रम और कर्तव्यनिष्ठा से समाज को प्रेरित किया। इन उदाहरणों से यह स्पष्ट होता है कि भारत में नारी को हमेशा ही सम्मान प्राप्त था, लेकिन यह सम्मान उनके कर्मों के कारण था, केवल उनके महिला होने के कारण नहीं।
महिला सशक्तिकरण बनाम पुरुषों का दानवीकरण
आधुनिक काल में महिलाओं की स्थिति सुधारने के नाम पर एक नई धारा विकसित हुई है, जिसमें कुछ विचारधाराएँ यह दर्शाने लगी हैं कि पुरुषों का अस्तित्व मात्र नारी के लिए समस्या है। यह मानसिकता पुरुषों को अपराधी के रूप में देखने और महिलाओं को एकमात्र पीड़ित के रूप में स्थापित करने का प्रयास करती है।
यह कहना कि पुरुषों ने हमेशा महिलाओं को दबाया या उनका शोषण किया, एक अर्धसत्य है। इतिहास गवाह है कि पुरुषों ने नारी की रक्षा के लिए अपने प्राण तक न्योछावर कर दिए। राजपूतों ने अपनी स्त्रियों की अस्मिता बचाने के लिए अपने शीश कटवाए, स्वतंत्रता संग्राम में पुरुषों ने महिलाओं के समान कंधे से कंधा मिलाकर देश के लिए बलिदान दिए।
लेकिन वर्तमान समय में एक नया द्वन्द उत्पन्न हो गया है—”सम्मान दिया जाए या न दिया जाए?” कुछ वर्ग यह मानने लगे हैं कि पुरुषों को संदेह की दृष्टि से देखा जाना चाहिए, क्योंकि वे स्वभावतः शोषण करने वाले होते हैं। इसका परिणाम यह हुआ कि समाज में नारी और पुरुष के बीच अविश्वास और असुरक्षा की दीवार खड़ी हो गई है।
न्याय की कसौटी: समानता और जिम्मेदारी
सम्मान केवल लिंग के आधार पर नहीं बल्कि कर्मों के आधार पर मिलना चाहिए। एक सच्चे और न्यायप्रिय समाज की परिभाषा यही होगी कि वहाँ निर्णय पूर्वाग्रह से मुक्त हों।
आज महिलाओं की सुरक्षा, शिक्षा, और आर्थिक स्वतंत्रता पर बात करना आवश्यक है, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि पुरुषों को केवल आरोपों के आधार पर दोषी मान लिया जाए। बहुत से मामलों में देखा गया है कि झूठे आरोपों के कारण निर्दोष पुरुषों को समाज में अपमानित होना पड़ता है।
जब कोई पुरुष किसी महिला पर अन्याय करता है, तो उसे सजा मिलनी चाहिए, लेकिन जब कोई महिला झूठा आरोप लगाती है, तो उसे भी समान रूप से उत्तरदायी ठहराया जाना चाहिए। यह संतुलन ही एक सभ्य समाज की पहचान है।
महिला दिवस: भावना में नहीं, जिम्मेदारी में बहें
महिला दिवस का उद्देश्य केवल पुरुषों को कठघरे में खड़ा करना नहीं होना चाहिए। इसका मूल उद्देश्य महिलाओं के सशक्तिकरण को सही दिशा देना और पुरुषों के सहयोग को भी स्वीकार करना है।
महिला दिवस को जिम्मेदारी के साथ मनाने का अर्थ है कि:
- महिलाओं को यह सोचना चाहिए कि क्या वे केवल महिला होने के कारण सम्मान चाहती हैं, या वे अपने कर्मों से उस सम्मान की अधिकारी बनना चाहती हैं।
 - समाज में पुरुषों के प्रति व्याप्त पूर्वाग्रह को समाप्त करने के लिए महिलाएँ खुद पहल करें।
 - झूठे आरोपों की प्रवृत्ति को रोका जाए, ताकि वास्तविक पीड़ितों को न्याय मिल सके।
 - सम्मान और सुरक्षा दोनों पक्षों के लिए समान होनी चाहिए।
 
निष्कर्ष
अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस केवल महिलाओं की उपलब्धियों को याद करने का दिन नहीं, बल्कि एक नई सोच विकसित करने का अवसर है। यह सोच होनी चाहिए कि समाज में पुरुष और नारी एक-दूसरे के पूरक हैं, न कि विरोधी।
सम्मान का आधार केवल लिंग नहीं बल्कि कर्म होने चाहिए। पुरुषों ने सदैव नारी के सम्मान में बलिदान दिए हैं, और महिलाओं को भी यह सोचना चाहिए कि क्या उन्होंने भी पुरुषों के योगदान को उसी तरह स्वीकारा है?
सशक्तिकरण का अर्थ है समानता—जहाँ न कोई अधिक शक्तिशाली हो और न कोई अधिक असहाय। जब नारी स्वयं इस असंतुलन को समाप्त करने के लिए आगे बढ़ेगी, तभी समाज में वास्तविक सम्मान की स्थापना होगी।
महिला दिवस का संदेश यही होना चाहिए: सम्मान सभी को मिले, लेकिन कर्मों के आधार पर, न कि केवल लिंग के आधार पर।
			





















		    











