चुनाव आते ही नेता लोग ‘मुफ्त’ का जादू लेकर जनता के दरवाज़े दस्तक देने लगते हैं – “महिलाओं को ₹3000 हर महीने”, “बेरोजगारों को ₹5000 महीना”, “बिजली फ्री”, “पानी फ्री”, “बस यात्रा फ्री”, और यहाँ तक कि गैस सिलेंडर फ्री। लेकिन कभी आपने ठहरकर सोचा है कि ये सब देने का वादा करने वाले, लेंगे किससे?
क्या वे अपने घर से देंगे?
क्या पार्टी फंड से देंगे?
नहीं।
ये सब दिया जाएगा आपके द्वारा भरे गए टैक्स के पैसों से।
मुफ्त की मानसिकता: राष्ट्र के लिए आत्मघाती मार्ग
मुफ्त की लालच में जो वोट माँगा जाता है, वह लोकतंत्र का पतन है। और जो मुफ्त की चाह में वोट देता है, वह राष्ट्र का गला घोंटता है।
इस ‘मुफ्तवाद’ ने भारत में एक पूरी पीढ़ी को आलसी, निर्भर, और नकारात्मक सोच वाला बना दिया है।
जिस समाज को आत्मनिर्भर बनाना था, उसे नेताओं ने वोट बैंक में बदल दिया है।
नेता देंगे कहाँ से? – असलियत का आईना
नेता कहते हैं:
“हम सरकार में आए तो हर महिला को ₹3000 महीना देंगे।”
पर सवाल है –
क्या वे देंगे अपने जेब से?
क्या पार्टी फंड से चलाएँगे पूरी योजना?
उत्तर है – जनता के टैक्स से।
यानि जो लोग मेहनत से कमाते हैं, टैक्स भरते हैं, उन्हीं के पैसों को सरकार ऐसे लोगों को दे देती है जो काम नहीं करना चाहते, निकम्मेपन को जीवनशैली बना चुके हैं, और मुफ्त का माल ही चाहते हैं।
कैसे बनता है यह ‘फ्री का चक्रव्यूह’?
- सरकार मुफ्त चीज़ों का वादा करती है
- जनता में से कुछ लोग लालच में आकर वोट देते हैं
- सरकार बनती है और टैक्सपेयर्स का पैसा मुफ्त में बाँटा जाता है
- धीरे-धीरे मेहनत करने वाले निराश होते हैं, निकम्मे बढ़ते हैं
- टैक्स घटता है, खर्चा बढ़ता है
- सरकार को IMF / World Bank से कर्ज़ लेना पड़ता है
- देश कर्ज़ के जाल में फँसता है
- आर्थिक संकट – बेरोज़गारी – गरीबी – आत्महत्या
- वही जनता फिर उसी नेता को वोट देती है “क्योंकि उन्होंने हमें कुछ तो दिया”
क्या सुप्रीम कोर्ट, चुनाव आयोग या नीति आयोग सो रहे हैं?
जब राजनीतिक दल खुलेआम ₹3000 महीना, गैस सिलेंडर, लैपटॉप, स्कूटी जैसे प्रलोभन देते हैं, तो ये सवाल उठता है –
क्या ये रिश्वत नहीं है?
क्या जनता को खरीदने की कोशिश नहीं हो रही?
क्या संविधान की भावना इससे आहत नहीं होती?
सुप्रीम कोर्ट ने कई बार मुफ्त की घोषणाओं पर चिंता जताई है, लेकिन अभी तक कोई ठोस क़ानूनी या संवैधानिक रोक नहीं लग पाई है। चुनाव आयोग भी इस पर मौन है, शायद इसलिए क्योंकि हर दल इस दौड़ में शामिल है।
मुफ्त लेने वाले भी कम दोषी नहीं
केवल नेताओं की आलोचना करना पर्याप्त नहीं।
वह व्यक्ति जो मेहनत छोड़कर मुफ्त में पैसा लेना चाहता है, वह भी राष्ट्र के पतन में भागीदार है।
एक समाज तभी आगे बढ़ता है जब लोग स्वाभिमान और परिश्रम से जीवनयापन करें।
जो लोग सरकार की मदद को अधिकार और आलस्य का लाइसेंस समझते हैं, वे राष्ट्र के लिए विकास नहीं, बोझ हैं।
ये नहीं है “कल्याणकारी राज्य” – ये है वोटर को गुलाम बनाना
कल्याणकारी योजनाएँ होती हैं जैसे – शिक्षा, स्वास्थ्य, स्वच्छता।
पर मुफ्तखोरी योजनाएँ होती हैं – “तू वोट दे, मैं तुझे कुछ पकड़ा दूँ।”
इसका नतीजा क्या होता है?
- मेहनती व्यक्ति की कद्र घटती है
- टैक्स का बोझ बढ़ता है
- सरकारें काम की जगह प्रचार में व्यस्त रहती हैं
- और जनता आलसी बनती जाती है
रास्ता क्या है?
- चुनाव आयोग को चाहिए कि मुफ्त के वादों पर प्रतिबंध लगाए, जब तक उनके पीछे स्पष्ट आर्थिक स्रोत न हो
- जनता को चाहिए कि वोट नीतियों पर दे, न कि लालच पर
- सुप्रीम कोर्ट और नीति आयोग को मिलकर एक संविधानिक नीति बनाएँ कि रिश्वत की तरह काम करने वाले मुफ्त वादे असंवैधानिक हैं
मुफ्त देने वाले और मुफ्त लेने वाले – दोनों ही देश को पीछे खींच रहे हैं।
यह केवल भ्रष्ट राजनीति नहीं है, यह राष्ट्रद्रोही मानसिकता है जो देश को एक भीख पर टिकी अर्थव्यवस्था की ओर ले जा रही है।
भारत को चाहिए – कर्मयोग, न कि कृपायोग।
रोज़गार की नीति चाहिए, मुफ्त का लालच नहीं।
“विकास का वोट दीजिए, भीख का नहीं।
ताकि भारत आत्मनिर्भर बने – आत्मग्लानि में डूबा नहीं।”