अगर सिर्फ इस आधार पर देखा जाए तो सर्कार ऑन पेपर भारत को एक हिन्दू राष्ट्र ही मानती है, क्युकी हिन्दू धर्म के अलाबा बाकी सब अल्पसंख्या का दर्जा लिए बैठे, हिन्दू धर्म के मंदिरो के अलाबा कोई और धार्मिक संस्था टैक्स नहीं देती है, यानि सब के पेट पलने के लिए हिन्दू धर्म के आस्था के केन्द्रो का ही दोहन किया जाता है, आज भारत में मंदिर केवल पूजास्थल नहीं हैं, बल्कि संस्कृति, अर्थव्यवस्था, रोजगार और सामाजिक सहयोग का भी एक बड़ा आधार हैं। प्रतिवर्ष करोड़ों हिंदू श्रद्धालु मंदिरों में दान देते हैं – नकद, आभूषण, संपत्ति और अन्य भेंट के रूप में। लेकिन एक बड़ा सवाल यह है कि इस धन का उपयोग कैसे होता है? क्या इसका लाभ हिंदू समाज को प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से मिलता है? और क्या यही नियम अन्य धर्मों के पूजा स्थलों पर भी लागू होते हैं?
मंदिरों से सरकार को मिलने वाली आय
भारत के हजारों बड़े मंदिरों में हर वर्ष अरबों रुपये का दान आता है। इन दानों से मंदिर प्रबंधन के साथ-साथ सरकारों को भी बड़ी आमदनी होती है, विशेषकर उन राज्यों में जहाँ सरकारों ने मंदिरों पर सीधा नियंत्रण रखा हुआ है, जैसे तमिलनाडु, केरल, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, महाराष्ट्र और ओडिशा।
कुछ उदाहरण:
- तिरुपति बालाजी मंदिर (आंध्र प्रदेश): 2023-24 में मंदिर को लगभग ₹4,000 करोड़ की आय हुई, जिसमें से बड़ा हिस्सा राज्य सरकार को ट्रस्ट द्वारा नियंत्रित योजनाओं में जाता है।
- सबरीमाला मंदिर (केरल): हर साल करोड़ों की आमदनी, परंतु उसका प्रशासन भी सरकार नियंत्रित ‘देवस्वम् बोर्ड’ के अधीन है।
- पद्मनाभस्वामी मंदिर (केरल): विश्व का सबसे समृद्ध मंदिर, जिसकी संपत्ति अनुमानतः लाखों करोड़ में है, लेकिन इसके नियंत्रण को लेकर वर्षों तक कानूनी विवाद रहा।
इस प्रकार, मंदिरों के दान से राज्य सरकारों को प्रत्यक्ष रूप से करोड़ों रुपये मिलते हैं – चाहे ट्रस्टों के माध्यम से हो या तीर्थ स्थानों पर लगाए गए करों से (जैसे ट्रैवल टैक्स, पार्किंग टैक्स, वस्तु एवं सेवा कर आदि)।
मंदिर आधारित रोजगार
भारत के मंदिर न केवल आस्था के केंद्र हैं, बल्कि लाखों लोगों को रोज़गार भी प्रदान करते हैं। एक मंदिर की दैनिक गतिविधियों को बनाए रखने के लिए कई प्रकार के कार्यबल की आवश्यकता होती है:
- पुजारी और कर्मकांडी कर्मचारी
- साफ-सफाई, सुरक्षा और व्यवस्थापक
- मालाओं, प्रसाद, पूजा सामग्री, दीपक आदि बेचने वाले स्थानीय व्यापारी
- ट्रांसपोर्ट, होटल, रेस्टोरेंट, गाइड और पार्किंग क्षेत्र में कार्यरत लोग
- स्थानीय हस्तशिल्प, कलाकृति और धार्मिक पुस्तकें बेचने वाले दुकानदार
उदाहरण के लिए, अकेले तिरुपति मंदिर से प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से 50,000 से अधिक लोगों को रोजगार मिला हुआ है। काशी, हरिद्वार, उज्जैन, पुरी, द्वारका, (भगवान् श्रीकृष्ण के बारे में महत्वपूर्ण जानकारियां) वृंदावन (मथुरा जिले के गांव), अयोध्या जैसे नगरों में भी धार्मिक पर्यटन और मंदिर केंद्रित गतिविधियों से लाखों लोग रोज़गार पाते हैं।
मंदिर और धर्मनिरपेक्षता: दोहरा मापदंड?
भारत एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र है। परंतु जब मंदिरों की बात आती है तो राज्य सरकारें इन पर अधिकार कर लेती हैं, जबकि चर्च, मस्जिद, गुरुद्वारों पर किसी प्रकार का सरकारी नियंत्रण नहीं है।
- मंदिर: कई राज्यों में हिंदू मंदिरों का प्रशासन सरकार द्वारा नियुक्त अधिकारी (IAS) और बोर्ड करते हैं। उनके द्वारा संग्रहित दान और आय का उपयोग सरकार तय करती है, और कई बार यह राशि गैर-धार्मिक कार्यों में भी खर्च होती है।
- मस्जिद/चर्च/गुरुद्वारा: इनके ट्रस्ट स्वतंत्र हैं। सरकार इनके मामलों में हस्तक्षेप नहीं करती। उनकी आय और संपत्ति पर न ही कोई सरकारी कर और न ही नियंत्रण होता है।
यह भेदभाव भारतीय संविधान के अनुच्छेद 26 का स्पष्ट उल्लंघन है, जो सभी धार्मिक समुदायों को अपने धर्मस्थलों का प्रबंधन करने की स्वतंत्रता देता है। फिर भी, केवल हिंदू मंदिरों को राज्य सरकारें “Public Property” मानती हैं।
कोरोना काल और टैक्स देने वाला वर्ग
कोविड-19 महामारी के समय जब देश संकट में था, उस समय मंदिरों की बड़ी संपत्ति का उपयोग सरकारी फंड में किया गया – बिना भक्तों की सहमति के। वहीं, टैक्स देने वाला मध्यम वर्ग – जो मंदिरों में भी दान करता है – बेरोजगारी, महंगाई और मानसिक संकट से जूझता रहा। न तो सरकार ने उसे सोशल सिक्योरिटी दी, न ही मंदिरों की संपत्ति से उसे कोई राहत मिली।
मंदिरों का राजनीतिक उपयोग
मंदिरों की संपत्ति और प्रतिष्ठा का उपयोग आज राजनीति का साधन बन गया है। सरकारें इनका नियंत्रण बनाए रखने के लिए कानून बना रही हैं, वहीं ‘धर्मनिरपेक्षता’ के नाम पर केवल हिंदू संस्थाओं को ही निशाना बनाया जा रहा है। ‘लाडली बहना योजना’, ‘मुफ्त बिजली’, ‘मुफ्त बस यात्रा’ जैसी योजनाएँ ऐसे वर्गों को दी जाती हैं जो टैक्स नहीं देते, लेकिन टैक्स देने वाला और मंदिर में दान देने वाला नागरिक दोनों जगह उपेक्षित रह जाता है।
समाधान क्या है?
- मंदिरों को सरकारी नियंत्रण से मुक्त किया जाए, जैसे चर्च और मस्जिद हैं। इसके लिए सुप्रीम कोर्ट के निर्णयों और अनुच्छेद 26 का पालन किया जाए।
- दान की पारदर्शिता सुनिश्चित की जाए और भक्तों की समिति बनाई जाए जो तय करे कि आय का उपयोग किस सामाजिक कार्य में हो।
- टैक्स देने वालों के लिए सोशल सिक्योरिटी की व्यवस्था हो — जैसे बेरोजगारी के समय सहायता, स्वास्थ्य बीमा, पेंशन आदि।
- धर्म आधारित भेदभाव खत्म हो, जिससे सभी धार्मिक संस्थाओं को एक समान संवैधानिक अधिकार मिले।
निष्कर्ष:
हिंदू मंदिर भारत की सांस्कृतिक और आर्थिक रीढ़ हैं। सरकार को चाहिए कि वह मंदिरों की संपत्ति को ‘राजस्व का साधन’ न मानकर श्रद्धालुओं की आस्था का सम्मान करे। जिस वर्ग ने देश के निर्माण में टैक्स और धर्म दोनों के रूप में योगदान दिया है, उसके साथ न्याय तभी होगा जब उसे भी अधिकार, सम्मान और सुरक्षा मिले।