भारत एक लोकतांत्रिक देश है, जहाँ अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को सबसे बड़ा संवैधानिक अधिकार माना गया है। पर सवाल यह है कि यह स्वतंत्रता किसके लिए है और किसके लिए नहीं? पिछले कई दशकों में भारतीय सिनेमा ने सामाजिक विषमताओं को दिखाने के नाम पर लगातार सवर्ण समाज को अत्याचारी और दलित समाज को पीड़ित के रूप में चित्रित किया।
1. दलित अत्याचार पर बनी फ़िल्में और समाज की चुप्पी
| फ़िल्म का नाम | विषय / कहानी | किसे खलनायक दिखाया गया | विरोध / विवाद |
|---|---|---|---|
| आछूत कन्या (1936) | प्रेम कहानी (दलित-वैश्य विवाह) | परंपरागत सवर्ण समाज | कोई बड़ा विवाद नहीं, लेकिन इसे सुधारवादी सिनेमा कहा गया |
| सदन की एक लड़की (1940s) | अस्पृश्यता पर आधारित | सवर्ण परंपराएँ | सुधारवादी प्रचार के रूप में सराहा गया |
| अनकही (1989) | दलित युवक और ब्राह्मण लड़की की कहानी | ब्राह्मण परिवार (विरोधी) | छोटे पैमाने पर विवाद |
| बैंडिट क्वीन (1994) | फूलन देवी की बायोपिक | ठाकुर समुदाय (बलात्कारी व अत्याचारी) | ठाकुर समाज और कई राजपूत संगठनों ने इसका विरोध किया |
| आक्रोश (1980) | दलित आदिवासी के उत्पीड़न की कहानी | सवर्ण पुलिस और ठेकेदार | समाज सुधारक फिल्म कहकर सराही गई |
| दमुल (1985) | बिहार की जातीय राजनीति | ऊँची जाति ज़मींदार | विवाद हुआ, लेकिन इसे “बोल्ड रियलिस्टिक सिनेमा” कहा गया |
| जय भीम (2021, तमिल; हिंदी में भी लोकप्रिय) | दलित जनजाति पर पुलिस अत्याचार | पुलिस और ब्राह्मणवादी व्यवस्था | इसे राजनीतिक विवादों से जोड़कर देखा गया |
| आर्टिकल 15 (2019) | उत्तर भारत की जातीय विषमता | ठाकुर और ब्राह्मण जातियाँ | पश्चिमी यूपी व ठाकुर संगठनों ने विरोध किया |
| पानीपत (2019) | पानीपत की तीसरी लड़ाई | सदाशिवराव भाऊ (ब्राह्मण पेशवा) को लालची और गलत रणनीतिकार दिखाया | महाराष्ट्र व ब्राह्मण संगठनों ने विरोध किया |
| छपाक (2020) (भले ही जाति आधारित नहीं थी, लेकिन नाम बदलकर जातीय संदेह पैदा किया गया) | एसिड अटैक सर्वाइवर | आरोपी का असली मुस्लिम नाम बदलकर हिंदू नाम दिखाया गया | व्यापक विवाद और बहिष्कार की मांग |
भारत में “अचकन”, “सद्गति”, “बैंडिट क्वीन”, “आख़िरी दस्तक”, “मसान”, “आरक्षण”, “आर्टिकल 15” जैसी कई फ़िल्में बनीं। इन सभी में एक ही नैरेटिव प्रमुख रहा –
- दलित हमेशा शोषित है
- और शोषण करने वाला हमेशा ब्राह्मण, ठाकुर या कोई अन्य सवर्ण
इन फ़िल्मों के ज़रिए पूरा समाज यह मानने को बाध्य किया गया कि सवर्ण समुदाय सदियों से केवल शोषण करने वाला वर्ग है।
लेकिन सबसे दिलचस्प बात यह रही कि इन फ़िल्मों के रिलीज़ पर कभी सवर्ण समाज ने कोई बड़ा आंदोलन या विरोध नहीं किया।
- किसी निर्देशक पर हमला नहीं हुआ
- किसी फ़िल्म को बैन करने की माँग नहीं उठी
- किसी अभिनेता पर एफआईआर नहीं दर्ज हुई
बल्कि समाज ने यह मान लिया कि शायद यह उनकी ही गलती है, यह उनका ही “पाप” है जिसे स्वीकार करना होगा। सवर्ण समाज को एक प्रकार से शर्मिंदगी का बोध कराया गया और उन्होंने चुप्पी साध ली।
2. जब मुसलमानों की सच्चाई दिखी तो बवाल क्यों?
वहीं दूसरी ओर जब विवेक अग्निहोत्री जैसी हस्तियाँ “द कश्मीर फ़ाइल्स” और “द वैक्सीन वॉर” जैसी फ़िल्में लेकर आते हैं और विशेष रूप से कश्मीरी पंडितों के नरसंहार जैसी ऐतिहासिक सच्चाइयाँ सामने रखते हैं, तो अचानक यह कहा जाने लगता है कि –
- यह समाजिक सौहार्द बिगाड़ने वाली फ़िल्म है
- यह मुसलमानों को बदनाम करने की साज़िश है
- इसे बैन किया जाए
- निर्देशक पर एफआईआर दर्ज की जाए
यानी जब कैमरा सवर्णों की ओर होता है, तो उसे सामाजिक सुधार का प्रयास कहा जाता है, लेकिन जब वही कैमरा मुसलमानों की ओर घूमता है, तो उसे सांप्रदायिक उकसावा कह दिया जाता है।
3. लोकतंत्र में असली असमानता
लोकतंत्र का आधार बराबरी है। अगर सिनेमा में सवर्णों की आलोचना लोकतांत्रिक अधिकार है, तो मुस्लिम समाज की आलोचना भी उतना ही अधिकार होना चाहिए। लेकिन यहाँ दोहरे मापदंड दिखते हैं।
- सवर्ण समाज पर बनी फ़िल्में → “जागरूकता”, “सामाजिक सुधार”, “दलित आवाज़”
- मुस्लिम समाज पर बनी फ़िल्में → “नफ़रत फैलाना”, “साम्प्रदायिकता”, “बैन”
यही असमानता लोकतंत्र के लिए सबसे बड़ा ख़तरा है।
4. सवाल यह भी है…
अगर समाजिक सौहार्द को ही सर्वोपरि रखना है, तो फिर यह सवाल क्यों नहीं उठता कि –
- “बैंडिट क्वीन” देखने के बाद सवर्ण समाज के लोग आहत नहीं हुए?
- “आर्टिकल 15” में ब्राह्मणों और ठाकुरों को बलात्कारी दिखाने पर समाज ने मुक़दमा क्यों नहीं किया?
- “आरक्षण” जैसी फ़िल्मों ने जातिगत विभाजन को भड़काया, फिर भी उन पर बैन की माँग क्यों नहीं उठी?
क्या समाजिक सौहार्द केवल तब बिगड़ता है जब मुस्लिम समाज की सच्चाई सामने आती है?
5. सवर्ण समाज की चुप्पी और विवेक अग्निहोत्री का साहस
सच तो यह है कि सवर्ण समाज की चुप्पी को उनकी कमज़ोरी और अपराधबोध मान लिया गया। जबकि विवेक अग्निहोत्री जैसे निर्देशक ने उस चुप्पी को तोड़ा। उन्होंने इतिहास की वह परत खोली, जिसे मुख्यधारा मीडिया और फ़िल्म जगत हमेशा छुपाना चाहता था।
उनकी फ़िल्में केवल कला नहीं, बल्कि एक राष्ट्रवादी हस्तक्षेप हैं – जो हमें यह याद दिलाती हैं कि समाज का हर वर्ग सवालों के घेरे में आ सकता है, केवल एक वर्ग विशेष को “पवित्र गाय” घोषित नहीं किया जा सकता।
6. विरोध की असली वजह
असल में, विवेक अग्निहोत्री की फ़िल्मों का विरोध केवल इसलिए नहीं है कि वह मुसलमानों पर सच्चाई दिखाते हैं। असली वजह यह है कि –
- उनकी फ़िल्में वामपंथी-छद्म सेकुलर नैरेटिव को तोड़ती हैं
- उनकी फ़िल्में भारतीय इतिहास की आधिकारिक व्याख्या को चुनौती देती हैं
- और सबसे बड़ी बात, उनकी फ़िल्में जनता को वह सच दिखाती हैं जिसे जानने से रोकने की कोशिश की गई थी
7. लोकतंत्र का असली इम्तिहान
लोकतंत्र में कला और अभिव्यक्ति का अधिकार सबके लिए बराबर होना चाहिए। अगर दलित अत्याचार पर फ़िल्म बन सकती है, तो कश्मीरी पंडितों के नरसंहार पर भी बननी चाहिए। अगर ब्राह्मणों और ठाकुरों को खलनायक दिखाया जा सकता है, तो आतंकी इस्लामिक संगठनों को क्यों नहीं?
अगर समाजिक सौहार्द की चिंता सचमुच होती, तो यह चिंता उस समय भी उठती जब फ़िल्मों ने पूरे सवर्ण समाज को अपमानित और अपराधी दिखाया।
सवाल यह नहीं है कि फ़िल्में बननी चाहिए या नहीं। सवाल यह है कि क्या हमारा लोकतंत्र सच दिखाने के मामले में सबके लिए बराबर है या नहीं।
आज आवश्यकता इस बात की है कि –
- हम दोहरे मापदंडों को नकारें
- इतिहास और समाज की हर सच्चाई सामने आने दें
- और कला व अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता सबके लिए समान रखें
क्योंकि अगर लोकतंत्र में एक वर्ग को निशाना बनाना स्वतंत्रता है और दूसरे वर्ग की आलोचना अपराध है, तो यह लोकतंत्र नहीं बल्कि राजनीतिक दोगलापन है।
विश्लेषण
- ज़्यादातर सुधारवादी या दलित-केन्द्रित फ़िल्मों में सवर्ण को खलनायक दिखाना एक स्थायी पैटर्न है।
- जब-जब किसी दलित या वंचित पात्र को “पीड़ित” दिखाया गया है, उसके विरोधी पात्र लगभग हमेशा ठाकुर, ब्राह्मण या ऊँची जातियों से रखे गए हैं।
- इन फ़िल्मों ने समाज में “सवर्ण = उत्पीड़क” नैरेटिव को मज़बूती से स्थापित किया।
- लेकिन जब किसी मुस्लिम शासक (जैसे औरंगज़ेब, खिलजी) या ईसाई सत्ता की नकारात्मक छवि दिखाने की कोशिश हुई, वहाँ भारी सेंसरशिप और विरोध झेलना पड़ा।


































