भारत में पिछले एक दशक से विदेशी NGOs और तथाकथित पशु-प्रेमी संगठन गली-सड़क पर कुत्तों को खिला-पिलाकर उनकी संख्या को जानबूझकर बढ़ा रहे हैं।
- इन संगठनों को अमेरिका और यूरोप से मोटी फंडिंग मिल रही है।
- इनका एक मकसद है भारत की पर्यटन उद्योग को चोट पहुँचाना।
- और दूसरा मकसद है रेबीज के इंजेक्शन की खपत या फिर कुत्तो की वेक्सिनेशन से कमाई
सोचिए, जिस देश में हर गली-मोहल्ले में हजारों आवारा कुत्ते घूमते हों, उस देश में विदेशी पर्यटक खुद को कितना सुरक्षित महसूस करेंगे? यही कारण है कि कई अंतरराष्ट्रीय पर्यटन रिपोर्ट्स में भारत को “सड़क सुरक्षा और स्वास्थ्य जोखिम” के मामले में निचले पायदान पर रखा जाता है।
और सोचिये इतनी बड़ी जनसंख्या में अगर रोज 1 लाख लोगो को भी कुत्ते ने काटा तो एक लाख रेबीज के इंजेक्शन खपेगे या फिर जो लोग कुत्ते पालते है उनको वेक्सिनेशन करवानी पड़ेगी, यानि धंदा चलना चाहिए
सुप्रीम कोर्ट में करोड़ों की लड़ाई
तथ्य यह है कि कुत्तों के मामले को पेटा इंटरनेशनल (PETA) ने सर्वोच्च न्यायालय तक पहुँचाया हो सकता ये संस्था सामने से न आयी हो परोक्ष रूप से आयी हो क्युकी इस संस्था का सर्वाधिक प्रेम कुत्तो के प्रति ही उमड़ता है । और इसके लिए उन्होंने भारत के सबसे महंगे वकीलों – कपिल सिब्बल और अभिषेक मनु सिंघवी – को खड़ा किया।
- दोनों वकीलों की फीस मिलाकर लगभग ₹7 करोड़ आँकी जाती है।
- सवाल है – “कुत्तों” के लिए कोई संगठन इतना पैसा क्यों खर्च करेगा?
यह तो साफ है कि इसके पीछे कोई सामान्य पशु-प्रेम नहीं, बल्कि विशाल विदेशी एजेंडा और लॉबी है।
अमेरिका-यूरोप में क्यों नहीं दिखते स्ट्रीट डॉग?
विडंबना देखिए –
- अमेरिका और यूरोप में आपको सड़क पर एक भी स्ट्रीट डॉग नहीं मिलेगा।
- वहाँ पर या तो डॉग शेल्टर हैं या फिर सीधे इन्हें नियंत्रित कर निपटा दिया जाता है।
- पर वही संगठन जिनके मुख्यालय अमेरिका-यूरोप में हैं, भारत में स्ट्रीट डॉग्स के लिए आंदोलन छेड़े बैठे हैं।
क्या कभी आपने सुना कि अमेरिका या ब्रिटेन में लोगों ने “स्ट्रीट डॉग्स के अधिकार” के लिए कोर्ट में केस किया हो? जवाब है – कभी नहीं।
तो समझ लीजिए – यह “पशु प्रेम” नहीं बल्कि भारत को असुरक्षित और अव्यवस्थित दिखाने की गहरी साजिश है।
राजनीति की गंध
ध्यान देने वाली बात यह भी है कि कांग्रेस नेतृत्व (राहुल गांधी और प्रियंका गांधी) ने भी आवारा कुत्तों पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर ट्वीट किए।
👉 जब आम नागरिक गली-कूचों में कुत्तों के आतंक से परेशान है, तब नेता वर्ग अचानक “कुत्ता-प्रेम” में क्यों डूब जाते हैं?
इससे साफ है कि यह सब एक योजनाबद्ध राजनीतिक एजेंडा का हिस्सा है।
असली खेल – रेबीज़ वैक्सीन माफिया
अब सबसे बड़ा तथ्य –
- दुनिया की केवल 18 कंपनियों को ही WHO ने रेबीज़ वैक्सीन बनाने की अनुमति दी है।
- इन 18 में से केवल 1 कंपनी (भारत बायोटेक) भारतीय है।
- रेबीज़ वैक्सीन का सबसे बड़ा उपभोक्ता भारत है।
भारत सरकार हर साल हजारों करोड़ रुपये रेबीज़ वैक्सीन पर खर्च करती है।
👉 अब ज़रा सोचिए – अगर भारत में स्ट्रीट डॉग्स की समस्या खत्म कर दी गई, तो इन विदेशी कंपनियों का अरबों डॉलर का निवेश डूब जाएगा।
यही कारण है कि विदेशी कंपनियाँ चाहती हैं कि भारत में आवारा कुत्ते कभी खत्म न हों।
निष्कर्ष : असली एजेंडा क्या है?
- भारत के पर्यटन उद्योग को नुकसान पहुँचाना।
- विदेशी वैक्सीन कंपनियों का अरबों डॉलर का बाज़ार बचाना।
- भारत को असुरक्षित, अव्यवस्थित और पिछड़ा दिखाना।
इसलिए विदेशी फंडिंग से पलने वाले संगठन और नेता कुत्तों के नाम पर इतना हंगामा मचाते हैं।
अंतिम यक्ष प्रश्न
- क्यों हर जगह सिर्फ “कुत्ता प्रेमी” ही सक्रिय दिखते हैं, बाकी पशुओं के लिए कोई आंदोलन क्यों नहीं?
- क्यों अमेरिका-यूरोप अपने देशों में स्ट्रीट डॉग्स नहीं रखते, पर भारत में इन्हें बचाने की लड़ाई लड़ते हैं?
- क्यों करोड़ों रुपये खर्च कर महंगे वकीलों से सुप्रीम कोर्ट में केस लड़वाया जाता है?
इन सवालों के जवाब ही असली तस्वीर साफ करते हैं।
👉 असल लक्ष्य है – भारत को हर मोर्चे पर कमजोर करना और उसे विदेशी बाज़ार बनाए रखना।


































