आज के समय में जब “तर्क” को ही बुद्धिमानी का प्रमाण मान लिया गया है, तब बहुत से लोग श्राद्ध को अंधविश्वास बताकर उसका उपहास उड़ाते हैं। वे कहते हैं –
“जब भोजन एक स्थान से दूसरे स्थान नहीं जा सकता, तो पूर्वजों तक कैसे जाएगा?”
या फिर तंज कसते हैं –
“ब्राह्मण को भोजन करवा दिया तो पूर्वजों तक पहुँच गया, तो फिर घर में किसी को खिलाओ और दफ्तर में तुम्हारे पेट में पहुँच जाएगा?”
ऐसे तर्क देने वाले खुद को पढ़ा-लिखा, आधुनिक और वैज्ञानिक कहते हैं। लेकिन क्या सचमुच यह मात्र अंधविश्वास है?
आइए, सनातन धर्म के शास्त्रीय, आध्यात्मिक और वैज्ञानिक पहलुओं से इस पर विचार करें।
श्राद्ध का अर्थ और उद्देश्य
“श्राद्ध” शब्द श्रद्धा से बना है, जिसका अर्थ है पूर्ण विश्वास और सम्मान के साथ किया गया कर्म।
- यह केवल भोजन अर्पित करना नहीं है, बल्कि पूर्वजों के प्रति कृतज्ञता और सम्मान प्रकट करने का एक माध्यम है।
- हमारे शास्त्र कहते हैं कि पूर्वज हमारे आसपास सूक्ष्म रूप में विद्यमान रहते हैं। वे हमें मार्गदर्शन करते हैं, संकटों से आगाह करते हैं और हमारे जीवन को सुचारु रखने में सहायक होते हैं।
गरुड़ पुराण में कहा गया है –
“येषां नास्ति पितृश्राद्धं तेषां नास्ति शुभं फलम्।
न च पुत्रप्रजा तेषां न च पिण्डो न जलं भवेत्॥”
(जो अपने पितरों का श्राद्ध नहीं करते, उन्हें न सुख मिलता है, न संतान-संतोष, न ही जीवन में स्थिरता।)
पूर्वजों का सूक्ष्म अस्तित्व: केवल विश्वास नहीं, अनुभव भी
यह मान्यता केवल धार्मिक नहीं है, बल्कि सूक्ष्म विज्ञान से भी जुड़ी है। आज विज्ञान भी मानता है कि ऊर्जा नष्ट नहीं होती, वह रूप बदलती है।
- जब हमारा शरीर पंचतत्वों में विलीन हो जाता है, तब चेतना का एक अंश सूक्ष्म रूप में विद्यमान रहता है।
- यह सूक्ष्म रूप हमारे वंशजों से जुड़ा रहता है, क्योंकि DNA केवल शारीरिक नहीं, ऊर्जा का भी आदान-प्रदान करता है।
इसीलिए जब हम आस्था से अपने पूर्वजों को स्मरण करते हैं, तो वह ऊर्जा हमारे जीवन में सकारात्मक प्रभाव डालती है।
महाभारत में भी भीष्म पितामह ने युधिष्ठिर को समझाया था –
“पितृदेवता नित्यं प्रसन्ना भवन्ति, यदा तेषां श्रद्धया हविः प्रदीयते।”
(जब श्रद्धा से पितरों को अर्पण किया जाता है, तो वे सदैव प्रसन्न रहते हैं।)
श्राद्ध का भोजन: क्या सचमुच पूर्वज खाते हैं?
यहाँ सबसे बड़ा भ्रम यही है। पूर्वज भोजन का भौतिक रूप नहीं, बल्कि उसकी सुगंध और ऊर्जा ग्रहण करते हैं। शास्त्रों में इसे ‘गंधग्राही देह’ कहा गया है।
यानि वे भोजन की प्राण शक्ति को स्वीकार करते हैं। इसके बाद उस भोजन को किसी सात्विक जीवधारी को अर्पित करना उचित माना गया है।
इसलिए हमारे धर्म में तीन श्रेष्ठ विकल्प बताए गए –
✅ ब्राह्मण – क्योंकि वे वेद-पाठ और मंत्रों से भोजन को पवित्र रखते हैं।
✅ गाय – जो सबसे सात्विक प्राणी मानी गई है।
✅ कन्या – जो पवित्रता और मासूमियत का प्रतीक है।
इसका मतलब ये नहीं कि ज़बरदस्ती किसी को ही खिलाना है। सनातन धर्म कट्टर नहीं है।
आप मानते हैं तो मानें, नहीं मानते तो कोई आपको जबरन नहीं मानेगा, न ही आपको धर्म से बाहर कर देगा।
तो फिर आलोचक क्यों दिक्कत करते हैं?
आज कुछ लोग कहते हैं –
“आप ब्राह्मण को क्यों खिलाते हैं? घर के किसी सदस्य को खिला दो!”
लेकिन सवाल ये है –
👉 क्या यह मेरा भोजन नहीं है?
👉 मैं उसे किसे खिलता हूँ, क्या यह मेरा अधिकार नहीं?
👉 जब देश स्वतंत्र है, तो फिर मेरी आस्था पर क्यों हमला?
अगर आप किसी के विश्वास को नहीं मानते तो न मानें। लेकिन उसकी बुराई करने का अधिकार आपको नहीं है।
यह हमारी स्वतंत्रता और आस्था पर प्रहार है, जो न केवल अनैतिक बल्कि असंवैधानिक भी है।
आस्था और विज्ञान: क्या दोनों साथ चल सकते हैं?
सोचिए –
अगर केवल तर्क ही सबकुछ है, तो विज्ञान के लोग पुराने वैज्ञानिकों की मूर्तियाँ क्यों बनवाते हैं?
- गैलिलियो, न्यूटन, आइंस्टीन के चित्र क्यों लगाते हैं?
- उनकी प्रयोगशालाओं को संग्रहालय क्यों बनाते हैं?
क्या ये सब कोरी सजावट है?
नहीं, ये सम्मान है। क्योंकि जिनसे प्रेरणा मिलती है, उनका स्मरण मन को शक्ति देता है।
ठीक वैसे ही, हमारे पूर्वज भी हमें अदृश्य रूप से मार्गदर्शन करते हैं। और श्राद्ध उसी सम्मान का प्रतीक है।
श्राद्ध और समाज का संतुलन
सनातन धर्म हमेशा संतुलन सिखाता है।
- यहाँ कोई आपको मजबूर नहीं करता कि आप इसे मानें।
- लेकिन कोई यह भी नहीं कह सकता कि जो मानता है वह मूर्ख है।
क्योंकि धर्म किसी पर थोपने की चीज़ नहीं, बल्कि स्वतंत्र आस्था है।
अगर आप इसे मानते हैं तो यह आपको मानसिक शांति, पूर्वजों का आशीर्वाद और आत्मिक संतोष देता है।
शास्त्रों की वाणी में उत्तर
मनुस्मृति में कहा गया है –
“पितृणां मातृणां च, मानं यः कुरुते सदा।
सदैव तस्य सर्वत्र, शुभं भवति नान्यथा॥”
(जो अपने पितरों और माताओं का सम्मान करता है, उसके जीवन में हमेशा शुभ होता है।)
और भगवद्गीता (9.13) में भी भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं –
“पितॄणां चैव यज्ञानां पितृयज्ञो विशिष्यते।”
(सभी यज्ञों में पितरों के लिए किया गया यज्ञ सर्वोत्तम माना गया है।)
निष्कर्ष: आस्था पर प्रहार मत कीजिए
श्राद्ध कोई अंधविश्वास नहीं, बल्कि कृतज्ञता का उत्सव है।
यह मान्यता है कि हम अपने पूर्वजों को स्मरण कर उनके प्रति सम्मान प्रकट करें, ताकि उनकी स्मृति हमारे जीवन में शक्ति बनकर रहे।
👉 आप मानें या न मानें, ये आपका अधिकार है।
👉 लेकिन दूसरों की आस्था पर तंज कसना न ज्ञान है, न बुद्धिमानी।
सनातन धर्म यही सिखाता है –
“स्वधर्मे निधनं श्रेयः, परधर्मो भयावहः।”
(अपने धर्म का पालन करना श्रेष्ठ है, दूसरों के धर्म को नीचा दिखाना भयावह है।)
इसलिए—
जो मानते हैं, वे श्रद्धा से करें।
जो नहीं मानते, वे चुपचाप सम्मान करें।
क्योंकि यह न केवल धर्म की मर्यादा है, बल्कि मानवता की भी मर्यादा है।
ॐ पितृभ्यः स्वधा नमः।


































