भारत सदा से विविधताओं का देश रहा है – यहां की मिट्टी में अनेकता में एकता बसती है। इस देश ने सदियों तक तमाम जातियों, संप्रदायों, धर्मों और भाषाओं को अपनी गोद में स्थान दिया है। यही विविधता भारतीयता की आत्मा है। किंतु आज हम एक ऐसे दौर से गुजर रहे हैं जहां “समतावाद” का नाम लेकर एक विचारधारा विशेष बाकी सभी विचारों को दबाने पर उतारू है।
जो समता के नाम पर सामाजिक न्याय की बात करता है, क्या वही वर्ग अब दूसरों के अस्तित्व को नकार रहा है? क्या आज का समतावाद वास्तव में समतावादी है या वह अपने विचारों के अतिरिक्त अन्य किसी भी मत को सहन नहीं कर पा रहा?
सनातन विरोध और छद्म समतावाद
आज एक बहुत बड़ा वर्ग है जो स्वयं को सामाजिक न्याय का ठेकेदार कहता है। वह बार-बार यह दोहराता है कि वह दलितों, महिलाओं और वंचितों के अधिकारों के लिए लड़ रहा है। लेकिन वास्तव में उसकी लड़ाई सिर्फ सनातन धर्म और उसकी परंपराओं के विरुद्ध है।
आप देखिए — यह वर्ग मनु महाराज की मूर्ति पर स्याही पोतता है, मनुस्मृति को जलाता है, और महापुरुषों जैसे तुलसीदास, चाणक्य, शंकराचार्य, यहां तक कि श्रीराम तक को दलित विरोधी और स्त्री विरोधी करार देता है।
लेकिन क्या यह आलोचना तर्कसंगत है?
नहीं। क्योंकि जो बातें उन्होंने कहीं, वो उनके समय के समाज की आवश्यकता और व्यवस्था थी।
सनातन की सहिष्णुता को समझिए
आज जो लोग स्वयं को ‘समतावादी’ कहते हैं, उन्हें कौन समझाए कि सनातन धर्म ही वह एकमात्र व्यवस्था थी जो हर मत, हर पंथ, हर साधना को स्वीकार करती रही है।
कभी बुद्ध को ईश्वर माना गया, कभी नास्तिक चार्वाक को भी समाज में स्थान मिला।
वेदांत, सांख्य, योग, मीमांसा, बौद्ध, जैन — इन सबको एक ही भारत भूमि ने स्थान दिया।
लेकिन अब छद्म समतावादी विचारधारा उस भारत की जड़ों पर प्रहार कर रही है, जिनसे खुद उसका अस्तित्व जुड़ा है। आज यह विचारधारा न केवल विरोध कर रही है, बल्कि जो इनके विचारों से सहमत नहीं, उन्हें जीने का अधिकार भी छीनने पर उतारू है।
समाजिक अन्याय की आड़ में कानून का दुरुपयोग
अगर हम वास्तव में समता की बात करें, तो क्या वह एकतरफा कानूनों से आती है?
SC/ST एक्ट, दहेज एक्ट, महिला केंद्रित कानून — इनका मूल उद्देश्य समाज को न्याय देना था। लेकिन आज इनका दुरुपयोग करके हजारों निर्दोष पुरुषों, सवर्णों और सामान्य नागरिकों को झूठे मामलों में फँसाया गया है।
आप गूगल कर लीजिए — आरक्षण और एक्ट के अन्याय के कारण आत्महत्या करने वाले युवाओं की संख्या बढ़ती जा रही है।
क्या यही समता है?
जब आज का सवर्ण समाज चुपचाप आरक्षण व्यवस्था को स्वीकार कर रहा है, तब क्या यह आवश्यक नहीं कि “समता” का दावा करने वाले वर्ग सनातन संस्कृति के प्रतीकों को अपमानित करना बंद करें?
मनु महाराज और भारतीय संस्कृति
आज जो लोग मनुस्मृति को जलाते हैं, वो शायद यह भूल जाते हैं कि भारत का संविधान भी उसी धार्मिक, सांस्कृतिक और नैतिक परंपरा की एक आधुनिक व्याख्या है।
मनु कोई जातिवादी शासक नहीं थे, वे एक सामाजिक विधिवेत्ता थे जिन्होंने समाज की स्थिति और परिस्थिति को ध्यान में रखकर नियम बनाए।
क्या आज का कोई भी कानून समय के अनुसार नहीं बदलता?
तो फिर उस काल के नियमों को आज के संदर्भ में दोषी ठहराना क्या बुद्धिमत्ता है या दुर्भावना?
विचारधारा मरती नहीं, ट्रांसफर होती है
अगर इतिहास से कुछ सीखना है तो यह समझना पड़ेगा कि विचारधाराएं मिटती नहीं, वे पीढ़ियों के माध्यम से स्थानांतरित होती हैं।
जिन्होंने अपने समय में सहिष्णुता, समता और न्याय की बात की, आज उन्हीं के अनुयायी एकतरफा नफरत फैला रहे हैं।
अगर पूर्वकाल में किसी वर्ग ने खुद को दूर रखा होगा, तो हो सकता है कि वह भी ऐसी ही नफरत और अस्वीकार की भावना से जूझ रहे हों — जैसे आज का तथाकथित समतावादी वर्ग कर रहा है।
आज यदि आप उन्हें नकारेंगे, अपमानित करेंगे, जिनकी विचारधारा आपको जीवित रखती आई है,
तो कल वे भी आपको नकार सकते हैं — और फिर आप कहेंगे कि “हमें अलग कर दिया गया”।
घृणा नहीं, मार्गदर्शन चुनिए
आप जिन लोगों से घृणा कर रहे हैं — तुलसीदास, मनु, श्रीराम, वेदव्यास, वे आपके दुश्मन नहीं हैं।
वे मार्गदर्शक हैं, जो समय के अनुरूप आपको दिशा दे सकते हैं।
समता का मतलब यह नहीं कि आप दूसरों की सोच को ही मिटा दें।
समता का अर्थ है — सभी को पनपने का समान अवसर देना, चाहे वह आपकी विचारधारा से सहमत हो या नहीं।
निष्कर्ष
समतावाद अगर अपनी ही विचारधारा को अंतिम सत्य माने और बाकी सबको नकारे, तो वह समता नहीं, अधिनायकवाद है।
भारत की आत्मा सहिष्णुता में है।
यहां मनुस्मृति और संविधान, राम और बुद्ध, शंकराचार्य और कबीर — सभी एक साथ रहते हैं।
अगर आप इस सहअस्तित्व को नकारेंगे,
तो आप केवल दूसरों का नहीं, अपने ही भविष्य का गला घोंट रहे हैं।
यदि आप भारत को बेहतर बनाना चाहते हैं तो घृणा नहीं, संवाद और समझदारी को चुनिए।
जिस सनातन ने आपको सोचने, बोलने और विरोध करने का अधिकार दिया,
उसे नष्ट करके नहीं, समझकर आगे बढ़िए।


































