आप इस बात को जितना जल्दी मान लेंगे इस साजिस को समझ जायेगे “जब परिवार टूटते हैं, तभी बाजार फलते हैं” — क्युकी यह वाक्य किसी विज्ञापन का नारा नहीं, बल्कि पिछले सौ वर्षों से भारत के सामाजिक ताने-बाने पर लागू की गई गहरी रणनीति है।
भारत की ताकत: संयुक्त परिवार
भारत की असली पहचान सिर्फ संस्कृति, योग या वेदों से नहीं, बल्कि उस जीवन-प्रणाली से थी जिसे “संयुक्त परिवार” कहा जाता है।
🔹 1931 की जनगणना रिपोर्ट बताती है कि उस समय भारत में 75% से अधिक परिवार संयुक्त परिवार प्रणाली में रहते थे।
🔹 1951 की जनगणना (आज़ादी के बाद) में भी यह संख्या 70% के करीब थी।
🔹 लेकिन 2011 की जनगणना तक आते-आते, संयुक्त परिवारों की संख्या घटकर 25–30% तक सिमट गई।
यह गिरावट अचानक नहीं हुई, बल्कि योजनाबद्ध थी।
पश्चिमी देशो को यह क्यों खटका?
पश्चिमी देशों की नींव उपभोक्तावाद (Consumerism) पर है।
अमेरिकी समाजशास्त्री Daniel Bell ने 1960 में कहा था:
👉 “Consumer economy thrives only when individuals are separated from their traditional communities.”
(यानी उपभोक्ता अर्थव्यवस्था तभी फलेगी जब लोग अपनी पारंपरिक समुदायों/परिवारों से अलग हो जाएं।)
भारत में संयुक्त परिवार “साझेदारी और संतोष” सिखाता था।
👉 बाजार की नज़र में यह “समस्या” थी, क्योंकि यहां “एक परिवार = एक ग्राहक” मॉडल काम नहीं करता था।
क्या अपनायी गे परिवार को तोड़ने की रणनीति
1. मीडिया का प्रचार
1950–60 के दशक में भारतीय फ़िल्मों में बड़े परिवारों को “खुशहाल” दिखाया जाता था।
लेकिन 1980 के बाद टीवी धारावाहिकों ने धीरे-धीरे तस्वीर बदली:
- सास-बहू सीरियल (2000 के बाद) ने संयुक्त परिवार को झगड़े और साज़िश का अड्डा बना दिया।
- न्यूक्लियर परिवार को “आज़ाद, मॉडर्न और खुशहाल” दिखाया गया।
2. शहरीकरण और सरकारी नीतियाँ
- 1961 में भारत की सिर्फ 18% आबादी शहरी थी, लेकिन 2011 तक यह बढ़कर 31% से अधिक हो गई।
- शहरों में छोटे मकान, फ्लैट और नौकरी की मजबूरियाँ — संयुक्त परिवार के लिए जगह ही नहीं बची।
3. उपभोक्तावाद का खेल
संयुक्त परिवार → 1 टीवी, 1 किचन, 1 गाड़ी।
न्यूक्लियर परिवार → 4 टीवी, 4 किचन, 2–3 गाड़ियां।
👉 1991 की आर्थिक उदारीकरण (Liberalisation) के बाद बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने इस मनोविज्ञान को और हवा दी।
भयानक नतीजे : सामाजिक और मानसिक संकट
📉 सामाजिक बदलाव
- NSSO रिपोर्ट (2014): भारत में Senior Citizens का 66% अब अकेले या सिर्फ पति-पत्नी के साथ रहते हैं।
- पहले बुज़ुर्ग सम्मानित “मार्गदर्शक” थे, अब उन्हें “बोझ” समझा जाने लगा।
🤯 मानसिक स्वास्थ्य संकट
- WHO की रिपोर्ट (2017): भारत में 5 करोड़ से अधिक लोग डिप्रेशन से पीड़ित, और मुख्य कारणों में “अकेलापन” सबसे ऊपर।
- पहले: अकेलापन परिवार से बात कर दूर होता था।
- अब: काउंसलर, ऐप्स और एंटीडिप्रेशन दवाइयां।
📦 बाजार का लाभ
- Festive Season को “Shopping Festival” बना दिया गया।
- “Family Time” → “Screen Time” में बदल गया।
- हर त्योहार = Amazon Sale
- हर भूख = Zomato Order
- हर बोरियत = Netflix Subscription
👉 संस्कार की जगह सब्सक्रिप्शन ने ले ली।
इस बात का इतिहास भी साक्षी है
🔹 महाभारत काल में भी परिवार की शक्ति का महत्व समझाया गया। कौरव-पांडव का विभाजन एक राजनैतिक युद्ध में बदल गया।
🔹 1857 की क्रांति के समय भी अंग्रेज़ों ने कहा था कि भारत को तोड़ने के लिए “उनके सामाजिक ढांचे को तोड़ना ज़रूरी है।”
🔹 Macauley की शिक्षा नीति (1835) का उद्देश्य भी यही था — “भारत के दिमाग और दिल को पश्चिमी ढांचे में ढालना।”
समाधान रहे और वापसी की राह पकडे
✔ संयुक्त परिवार को “Outdated” नहीं, आधुनिक समाधान मानें।
✔ बच्चों को संस्कार दें, सिर्फ गैजेट्स नहीं।
✔ बुज़ुर्गों को सम्मान दें — वे “Google” से कहीं बड़े “Living Library” हैं।
✔ त्योहारों को फिर से सामूहिक उत्सव बनाएं, Shopping Mela नहीं।
पश्चिम ने व्यापार के लिए हमारे परिवार तोड़े, और हम आधुनिक बनने की होड़ में अपना ही वजूद बेच आए।
अब सवाल है —
👉 क्या हम चाहते हैं कि अगली पीढ़ी को “संयुक्त परिवार” शब्द का अर्थ समझाने के लिए भी Google की मदद लेनी पड़े?
संयुक्त परिवार सिर्फ रहने की व्यवस्था नहीं, भारत की आत्मा है।


































