भारत, जिसकी आत्मा ‘सर्वे भवंतु सुखिनः’ की भावना से ओतप्रोत है, जहां एक ओर ‘गर्व से कहो हम हिंदू हैं’ और ‘जय जवान जय किसान’ जैसे नारे गूंजते हैं, वहीं दूसरी ओर ‘अमीरों से नफ़रत’ एक विचारधारा के रूप में पनप रही है। जब देश के वरिष्ठ और लोकप्रिय नेता नितिन गडकरी यह कहते हैं कि “गरीब और गरीब होता जा रहा है, और पूंजी कुछ अमीरों के हाथ में सिमट रही है,” तो यह केवल आर्थिक असमानता की चिंता नहीं है — यह सामाजिक मानसिकता की भी परतें खोलती है।
तो प्रश्न यह है कि — आखिर भारत में अमीरों से इतनी नफरत क्यों है? क्या अमीर होना अपराध है? क्या पूंजीपति, उद्योगपति और नवाचार करने वाले लोग समाज के शत्रु हैं या आर्थिक इंजन के ड्राइवर?
आइए, इस प्रश्न को गहराई से समझते हैं।
1. मेहनत से बनी संपत्ति पर शक क्यों?
अमीरों को लेकर एक आम धारणा है कि वे “लूट” कर अमीर बने हैं। यह धारणा औपनिवेशिक भारत, समाजवादी शिक्षा प्रणाली और कुछ हद तक बॉलीवुड व मीडिया द्वारा फैलाए गए “धन = अन्याय” वाले नैरेटिव की देन है।
फिल्मों में अक्सर अमीर व्यक्ति विलेन होता है, जो गरीबों का शोषण करता है। यह मानसिकता आज भी लोगों के अवचेतन में बैठी हुई है।
लेकिन वास्तविकता क्या है?
- अमीर व्यक्ति वह है जिसने किसी विचार को हकीकत बनाया।
- जिसने रिस्क लिया, इन्वेस्ट किया, लोगों को रोजगार दिया, टैक्स भरा और बाजार को सेवाएं दीं।
भारत के टॉप 1% लोगों ने जितना टैक्स दिया है, उतने से ही सरकार गरीबों की योजनाएं चला पाती है। परंतु इसके बावजूद, उन्हें ‘शोषक वर्ग’ कहकर आलोचना का पात्र बनाया जाता है।
2. गरीब क्यों नहीं बन पा रहा अमीर?
जब देश में संविधान, अवसर, संसाधन, सब समान रूप से उपलब्ध हैं, तो फिर गरीब क्यों गरीब ही रह जा रहा है?
- क्या उसे कोई रोक रहा है?
- क्या कोई संवैधानिक बाधा है?
- क्या देश में व्यवसाय करना अपराध बन चुका है?
नहीं।
दरअसल, समस्या है मानसिकता की। गरीबों में एक वर्ग ऐसा है जो ‘सिस्टम को कोसने’ में तो आगे है लेकिन ‘खुद को बदलने’ या ‘मेहनत करने’ में पिछड़ जाता है। बहुतों को मुफ्त की योजनाओं की लत लग गई है। वो मान बैठे हैं कि “सरकार देगी, व्यवस्था सुधारेगी, मैं तो बस शोषित हूं।”
जब तक यह “पीड़ित मनोवृति” बनी रहेगी, तब तक गरीबी खत्म नहीं होगी।
3. नेता भी क्यों खेलते हैं ‘गरीब-अमीर’ का खेल?
राजनीतिक दलों के लिए गरीब वोट बैंक हैं और अमीर विलेन। गरीबी मिट जाए, तो नेताओं का सबसे बड़ा चुनावी मुद्दा खत्म हो जाएगा।
इसलिए बार-बार गरीबों को यह बताया जाता है कि:
- अमीरों ने तुम्हारा हक छीन लिया है।
- तुम्हारे गरीबी की वजह पूंजीपति हैं।
- अमीरों पर टैक्स लगाओ, उनकी कमाई बांटो।
यह सब लोकप्रियता की राजनीति (populism) है, जो समाज में वर्ग संघर्ष को बढ़ाती है, लेकिन समाधान कुछ नहीं देती।
4. पूंजीपति क्या करते हैं समाज के लिए?
अंबानी, अडानी, नारायण मूर्ति, अज़ीम प्रेमजी, रतन टाटा — क्या ये शोषक हैं?
या फिर:
- लाखों लोगों को रोजगार देने वाले उद्योगपति हैं?
- जिनके टैक्स से गरीबों को राशन, उज्ज्वला गैस, मुफ्त इलाज और स्कूल मिलते हैं?
- जो CSR (कॉरपोरेट सोशल रिस्पॉन्सिबिलिटी) के तहत गांव गोद लेते हैं, अस्पताल बनवाते हैं, स्कॉलरशिप देते हैं?
इनका “मुनाफा” देश की तरक्की में पुनः निवेश होता है।
एक व्यापारी जब अमीर होता है, तो वह केवल अपना नहीं, पूरे इकोसिस्टम का विकास करता है।
5. भारत को चाहिए पूंजीवादी सोच, न कि जलन
गरीबों को अमीर बनाने के दो रास्ते हैं:
- अमीरों को गरीब बना दो (जो वामपंथी सोच है)
- गरीबों को सशक्त बना दो ताकि वे भी अमीर बन सकें (जो राष्ट्रवादी और व्यावसायिक सोच है)
भारत को दूसरे रास्ते पर चलना होगा। हमें यह समझना होगा कि पूंजी सृजन करना पाप नहीं है, बल्कि यह राष्ट्र निर्माण का मूल है।
एक मजदूर सिर्फ अपनी मजदूरी से 5 लोगों का पेट पालता है, पर एक उद्योगपति 5000 मजदूरों को रोज़गार दे सकता है।
6. समाधान: नफ़रत नहीं, नवाचार चाहिए
अमीरों से जलन की बजाय, उनसे सीखने की ज़रूरत है। उन्हें रोल मॉडल बनाइए।
बच्चों को यह मत सिखाइए कि अमीर बुरे हैं, उन्हें बताइए कि कैसे अमीर बना जाता है।
- स्टार्टअप बनाइए
- मल्टीस्किल होइए
- मेंहनत कीजिए, पढ़िए, रिस्क लीजिए
- मुफ्तखोरी छोड़िए
भारत की युवा शक्ति को प्रेरणा चाहिए, “जलन नहीं।”
अमीर व्यक्ति समाज का दुश्मन नहीं होता, बल्कि उसका सर्जक होता है।
अगर हम हर सफल व्यक्ति को शक की निगाह से देखेंगे, तो कोई भी आगे बढ़ने का साहस नहीं करेगा।
भारत को एक ऐसा माहौल चाहिए जहां सफलता का सम्मान हो, न कि उपेक्षा।
गरीब का अमीर बनना तभी संभव है जब वो खुद अमीरों को शत्रु नहीं, प्रेरणा माने।
तभी भारत ‘विकसित राष्ट्र’ बन पाएगा, अन्यथा केवल वोटबैंक की राजनीति में उलझा रहेगा।


































