भगवान श्रीकृष्ण श्री मद भगवद गीता के अध्याय 8 के नौवें श्लोक में कहते है :
कविं पुराणमनुशासितार- मणोरणीयांसमनुस्मरेद्यः ।
सर्वस्य धातारमचिन्त्यरूप मादित्यवर्णं तमसः परस्तात् ॥ ९॥
इस श्लोक का साधारण शब्दों में शब्दार्थ इस प्रकार से है :
मनुष्य को चाहिए कि परमपुरुष का ध्यान सर्वज्ञ, पुरातन, नियन्ता, लघुतम से भी लघुतर, प्रत्येक के पालनकर्ता, समस्त भौतिकबुद्धि से परे, अचिन्त्य तथा नित्य पुरुष के रूप में करे | वे सूर्य की भाँति तेजवान हैं और इस भौतिक प्रकृति से परे, दिव्य रूप हैं |
किन्तु यदि शब्दों के साथ भावो का विश्लेषण करें तो भावार्थ अर्थात तात्पर्य कुछ ऐसा होगा।
भगवान श्रीकृष्ण अपने परम् प्रिय शिष्य, भक्त एवं सखा अर्जुन को भक्ति पथ का अत्यंत सुगम मार्ग बता रहे है और इसी के संदर्भ में इस श्लोक में परमेश्र्वर के चिन्तन की एक विशिस्ट विधि का वर्णन किया हुआ है | भगवान के नित्य चिंतन में सबसे प्रमुख बात यह है कि वे निराकार या शून्य नहीं हैं जैसा की कम जानकारी वाले लोग जल्दीबाजी में बोल देते है क्युकी कोई निराकार या शून्य का चिन्तन कैसे कर सकता है? यह अत्यन्त कठिन है वास्तव में श्री कृष्ण के चिन्तन की विधि अत्यन्त सुगम है और सभी क्र सकते है,और तथ्य रूप में यहाँ श्री भगवान द्वारा स्वयं वर्णित है |
यहाँ पर हम अगर अपने धर्मग्रंथो का अध्ययन करे तो हमे इस दृश्य मान संसार या ब्रह्माण्ड के अलाबा एक अदृश्य शक्ति के होने का अनुमान होता है जिसने समस्त ब्रह्मण्ड को एक नियंत्रित किया हुआ है, जैसे ग्रहो का एक गति में और अपने पथ पर चलना, धरती पर वृक्षों का एक जैसी ही मिटटी और पानी मिलने के बाद भी अलग अलग रंग, आकार और स्वाद के फल एवं सब्जिओ का उत्पादन करना, एक ही घर परिवार में एक ही माता पिता से जन्मे एक जैसा अन्न एवं ज्ञान प्राप्त करने के बाद भी बच्चो का व्यवहार एवं सोच का अलग अलग होना, और इसी अदृस्य शक्ति को हम प्रकृति या माया कहते है और जो इस माया को या प्रकृति को ये सब संचालित करने का निर्देश देता है वो परमेश्वर है।
अब पहली बात जो समझने के है तो वह यह है कि भगवान् पुरुष हैं जैसे की हम श्री राम एवं श्री कृष्ण को पुरुष रूप के बारे में सोचते हैं | चाहे कोई राम का चिन्तन करे या कृष्ण का, वे जिस तरह के हैं उसका वर्णन भगवद्गीता के इस श्लोक में किया गया है |
भगवान् कवि हैं अर्थात् वे भूत, वर्तमान तथा भविष्य के ज्ञाता हैं, अतः वे सब कुछ जानने वाले हैं | वे प्राचीनतम पुरुष हैं क्योंकि वे समस्त वस्तुओं के उद्गम हैं, प्रत्येक वस्तु उन्हीं से उत्पन्न है | वे ब्रह्माण्ड के परम नियन्ता भी हैं | वे मनुष्यों के पालक तथा शिक्षक हैं | वे अणु से भी सूक्ष्म हैं | जीवात्मा बाल के अग्र भाग के दस हजारवें अंश के बराबर है, किन्तु भगवान् अचिन्त्य रूप से इतने लघु हैं कि वे इस अणु के भी हृदय में प्रविष्ट रहते हैं | इसलिए वे लघुतम से भी लघुतर कहलाते हैं | परमेश्र्वर के रूप में वे परमाणु में तथा लघुतम के भी हृदय में प्रवेश कर सकते हैं और परमात्मा रूप में उसका नियन्त्रण करते हैं | इतना लघु होते हुए भी वे सर्वव्यापी हैं और सबों का पालन करने वाले हैं | उनके द्वारा इन लोकों का धारण होता है |
सामान्यता या प्रायः हम आश्चर्य करते हैं कि कैसे ये विशाल लोक किस प्रकार वायु में तैर रहे हैं बिना आपस में टकराते हुए | यहाँ यह बताया गया है कि कैसे परमेश्र्वर अपनी अचिन्त्य शक्ति द्वारा इन समस्त विशाल लोकों तथा आकाशगंगाओं को धारण किए हुए हैं | इस प्रसंग में अचिन्त्य शब्द अत्यन्त सार्थक एवं बहुत से अर्थो को समाहित करने वाला है | ईश्र्वर की शक्ति हमारी कल्पना या विचार शक्ति के बहुत ज्यादा परे है, इसीलिए परमेश्वर की यही शक्ति अचिन्त्य कहलाती है |
इस बात का खंडन कौन कौन कर सकता है? इस बात का खंडन कुछ लोग अवश्य कर सकते की वे भौतिक जगत् में व्याप्त हैं फिर भी इससे परे हैं इसका स्पस्ट कारण सिर्फ इतना है कि हम इसी दृश्यमान भौतिक जगत् को ठीक-ठीक नहीं समझ पाते जो आध्यात्मिक जगत् की तुलना में नगण्य है तो फिर हम कैसे जान सकते हैं कि इसके परे क्या है? और जो सर्वथा हमारे भौतिक नेत्रों की शक्ति से परे है।
अचिन्त्य का अर्थ है इस भौतिक जगत् से परे जिसे हमारा तर्क, नीतिशास्त्र तथा दार्शनिक चिन्तन छू नहीं पाता और जो अकल्पनीय है किन्तु है अवस्य अन्यथा ये ब्रह्माण्ड और दृश्यमान संसार इतना व्यवस्थित नहीं होता जितना ये है |
अतः बुद्धिमान मनुष्यों को चाहिए कि व्यर्थ के तर्कों तथा चिन्तन से दूर रहकर वेदों, श्रीमद भगवद्गीता एवं महा भागवत पुराण जैसे सत शास्त्रों में जो कुछ कहा गया है, उसे स्वीकार कर लें और उनके द्वारा सुनिश्चित किए गए नियमों का पालन करें | इससे ज्ञान प्राप्त हो सकेगा एवं आध्यत्मिक उन्नति भी | हरे कृष्ण