राहुल गांधी ने संसद में अपने भाषण में मनुस्मृति और संविधान के बीच चयन का मुद्दा उठाया। यह बयान विवादास्पद और तीखी प्रतिक्रिया पैदा करने वाला था। यह महसूस किया जा सकता है कि राहुल गांधी ने न तो मनुस्मृति का अध्ययन किया है और न ही संविधान का गहन अध्ययन किया है।
राहुल गांधी, जो बार-बार संविधान को “लाल मैनिफेस्टो” के रूप में प्रस्तुत करते हैं, उनके पीछे वामपंथी विचारधारा का प्रभाव दिखता है। कई लोगों का मानना है कि उन्होंने ब्राह्मण होने का मुखौटा पहन रखा है, और इस भूमिका में वे हिंदुत्व को कमजोर करने की कोशिश कर रहे हैं। कांग्रेस के अंदर मौजूद हिंदू सदस्यों को भी इस रणनीति का समर्थन करने के लिए मजबूर किया जा रहा है। यह एक ऐसी रणनीति है जो कांग्रेस पार्टी के भीतर और बाहर हिंदुत्व समर्थकों के लिए चिंता का विषय बन रही है।
मनुस्मृति और संविधान को एक-दूसरे के विरोध में खड़ा करने की कोशिश की जा रही है। यह एक सोच-समझकर बनाई गई चाल है, जिसके निशाने पर हिंदुत्व है। वामपंथी विचारधारा को यह समझ है कि भारत की शक्ति हिंदुत्व में निहित है, और जब तक हिंदू समाज एकजुट है, तब तक भारत पर शासन करना मुश्किल होगा। कांग्रेस पार्टी, जिसे कुछ लोग “कम्युनिस्ट कांग्रेस” भी कहते हैं, विभिन्न तरीकों से हिंदू समाज को तोड़ने की कोशिश कर रही है। साम, दाम, दंड, और भेद जैसी नीतियां अपनाकर इसे संभव बनाने का प्रयास किया जा रहा है।
गौरतलब है कि राहुल गांधी कभी मुस्लिम समुदाय से यह नहीं पूछते कि वे संविधान और कुरान के बीच किसे चुनेंगे। वे ईसाई समुदाय से बाइबल और संविधान के बीच चुनाव का सवाल भी नहीं उठाते। लेकिन जब हिंदू समुदाय की बात आती है, तो ऐसे सवाल बार-बार खड़े किए जाते हैं। यह दृष्टिकोण उनके हिंदुत्व के प्रति विरोध को स्पष्ट करता है।
राहुल गांधी को वामपंथी विचारधारा का एक उपकरण माना जा सकता है। वे हिंदुत्व के मान-बिंदुओं का अपमान करके हिंदू समाज में आत्मग्लानि पैदा करने की कोशिश कर रहे हैं। इस रणनीति का उद्देश्य हिंदू समाज को विभाजित करना और कमजोर करना है। कांग्रेस पार्टी के कई सदस्य और तथाकथित सेकुलर हिंदू इस विचारधारा के प्रभाव में आकर राहुल गांधी के विचारों का समर्थन कर रहे हैं। लेकिन यह समर्थन कहीं न कहीं उन्हें अपने सांस्कृतिक मूल्यों और परंपराओं से दूर कर रहा है।
इस तरह की राजनीति के चलते, यह डर पैदा हो रहा है कि जिस तरह “वामपंथी” होना अब एक नकारात्मक पहचान के रूप में देखा जाता है, उसी तरह “कांग्रेसी” होना भी भविष्य में एक अप्रिय पहचान न बन जाए।
यह समय है कि हर भारतीय इस तरह की विभाजनकारी राजनीति और विचारधारा का विश्लेषण करे। हमें अपनी परंपराओं, संस्कृति और एकता को बनाए रखने के लिए सतर्क रहना होगा। किसी भी तरह की विचारधारा, जो समाज में विभाजन का कारण बने, उसे प्रश्नों के दायरे में लाना चाहिए।