कुंभ में महंगाई और नैतिकता पर सवाल
कुंभ मेले जैसे बड़े धार्मिक आयोजनों में अस्थायी महंगाई कोई नई बात नहीं है। लेकिन इस मुद्दे पर सवाल तब उठता है जब हम भ्रष्टाचार और बेईमानी को केवल अधिकारियों और नेताओं तक सीमित कर देते हैं, जबकि समाज के हर स्तर पर अवसर मिलते ही अनैतिक लाभ उठाने की प्रवृत्ति दिखाई देती है। यह लेख इसी विषय को तथ्यों और आंकड़ों के साथ विस्तार से समझाने का प्रयास करेगा।
कुंभ और महंगाई: आंकड़ों की नजर से
कुंभ मेले में करोड़ों की संख्या में श्रद्धालु आते हैं, जिससे मांग में अप्रत्याशित वृद्धि होती है। इसी वजह से होटल, परिवहन, भोजन और अन्य सेवाओं की कीमतें कई गुना बढ़ जाती हैं।
- रिक्शा और नाव के किराए में बढ़ोतरी
- आम दिनों में ₹100 में मिलने वाली रिक्शा सेवा कुंभ के दौरान ₹1000 तक पहुंच जाती है।
- नाविक, जो सामान्य दिनों में ₹400 में सेवा देते हैं, वही कुंभ में ₹6000 तक वसूलते हैं।
- भोजन और अन्य आवश्यक वस्तुओं के दाम
- साधारण दाल-चावल, जो आम दिनों में ₹200 में उपलब्ध होता है, वह कुंभ मेले के दौरान ₹600 में बिकने लगता है।
- ₹10 की चाय ₹40 तक पहुंच जाती है।
यह एक आर्थिक नियम है कि जब मांग बहुत अधिक होती है और आपूर्ति सीमित होती है, तो कीमतें बढ़ती हैं। लेकिन कुंभ जैसे आयोजनों में यह महंगाई केवल आपूर्ति की कमी की वजह से नहीं, बल्कि मुनाफाखोरी की प्रवृत्ति के कारण भी होती है।
क्या जनता भी बेईमानी की दोषी है?
हम अक्सर भ्रष्टाचार को सरकारी तंत्र से जोड़कर देखते हैं, लेकिन जब आम नागरिक को मौका मिलता है तो वह भी अनैतिक लाभ उठाने से नहीं चूकता। कुछ उदाहरण देखिए:
- त्योहारों और आपदा के समय मुनाफाखोरी
- दिवाली, होली या किसी आपदा के समय आवश्यक वस्तुओं की कीमतें अचानक बढ़ जाती हैं।
- ऑक्सीजन सिलेंडर, दवाइयां और मास्क की कालाबाजारी कोरोना महामारी के दौरान साफ दिखी। ₹500 का सिलेंडर ₹50,000 में तक बेचा गया।
- ट्रैफिक और जुर्माना
- जब पुलिस रिश्वत मांगती है तो हम उसे कोसते हैं, लेकिन खुद भी ₹500 का चालान बचाने के लिए ₹100 की रिश्वत देकर समस्या हल करने की कोशिश करते हैं।
- टैक्स चोरी और बिजली चोरी
- आयकर रिटर्न में कम आय दिखाकर बचत करने की मानसिकता आम है।
- ग्रामीण और शहरी इलाकों में बिजली चोरी को गलत नहीं माना जाता।
समस्या सिर्फ अवसर की है?
इस बहस का सबसे महत्वपूर्ण पहलू यह है कि क्या ईमानदारी केवल अवसर न मिलने की वजह से बनी रहती है? जब मौका मिलता है, तो अधिकांश लोग इसका लाभ उठाने से नहीं चूकते।
- क्या सड़क किनारे दुकान चलाने वाला व्यक्ति सही टैक्स भरता है?
- क्या बड़े व्यापारी जीएसटी से बचने के लिए कैश ट्रांजेक्शन नहीं करते?
- क्या सामान्य नागरिक कभी टिकट के लिए दलाल का सहारा नहीं लेता?
क्या समाधान है?
- नैतिक शिक्षा और जागरूकता: बचपन से ही नैतिकता की शिक्षा देना जरूरी है।
- कानूनों का सख्ती से पालन: केवल सरकारी अधिकारियों के लिए नहीं, बल्कि आम जनता के लिए भी।
- सोशल कंट्रोल: जब समाज खुद अनैतिक आचरण को अस्वीकार करने लगेगा, तो सुधार संभव होगा।
निष्कर्ष
अगर हम सिर्फ सरकार और प्रशासन को भ्रष्टाचार के लिए दोष दें, तो यह अधूरी सच्चाई होगी। हर स्तर पर बेईमानी और अवसरवादिता मौजूद है। जब तक हम खुद को बदलने की शुरुआत नहीं करेंगे, तब तक देश से भ्रष्टाचार पूरी तरह खत्म नहीं हो सकता।


































