उत्तर प्रदेश के कन्नौज के इत्र काररखानों में रोजाना 2500 से 3000 डेग में इत्र बनता है। हर एक डेग के लिए 100 किलोग्राम लकड़ियों की खपत होती है। एक ओर सरकार हर साल पर्यावरण बढ़ाने के लिए करोड़ों रुपये खर्च कर पौधरोपण कराती है। इसके बावजूद पर्यावरण बढ़ने की बजाय कम होता जा रहा है। इसकी एक बानगी आपको सिर्फ इत्र करोबार में देखने को मिल जाएगी। आप जिस छोटी सी शीशी से इत्र निकालकर लगाते हैं या पान मसाला खाते समय खुशबूदार जायका का आनंद उठाते हैं, वह खुशबू हरियाली की कुर्बानी से तैयार हो रही है। कन्नौज के इत्र कारखानों की भट्ठियों में रोजाना 2500 से 3000 टन लकड़ियां जलकर राख हो रही हैं। लगातार कटान से कन्नौज शहर के 25 से 30 किलोमीटर के दायरे में अब जंगल नहीं बचे हैं। कन्नौज में प्राकृतिक तरीके से इत्र बनाने का सदियों पुराना फार्मूला है। बदलते दौर में दुनिया में बदलाव आया पर इत्र बनाने का तरीका नहीं बदला। आज भी इत्र को लकड़ी की भट्ठियों की आंच से ही तैयार किया जाता है। जिस बड़े बर्तन में फूलों को पकाया जाता है, वह एक चूल्हे पर ही फिक्स होती हैं। हर चूल्हे में रोजाना एक क्विंटल लकड़ी की खपत होती है। एक कारखाने में औसत 25 से 30 क्विंटल लकड़ी की खपत है। यहां छोटे-बड़े 375 कारखाने हैं। कन्नौज से 25-30 किलोमीटर के दायरे में तो आपको दूर-दूर तक छायादार पेड़ों का दीदार मुश्किल होगा। सड़क किनारे इक्का-दुक्का ही बड़े पेड़ दिखेंगे। इत्र तैयार करने के लिए धीरे-धीरे वह पेड़ ईंधन के लिए कट गए। अब दूसरे जिलों से लकड़ियां मंगानी पड़ती हैं। दूरदराज के गांव या आसपास के जिलों हरदोई, दिनोंदिन कम होते जंगल और ईंधन मिलने में हो रही मुश्किल से कई छोटे इत्र उत्पादक को परेशानी होती है। यहां के इत्र कारोबारी काफी समय से गैस पाइप लाइन की मांग कर रहे हैं। उनका मानना है कि यह इको फ्रेंडली तो है ही, लकड़ियों की कीमत के मुकाबले किफायती भी है। लकड़ियों की कीमत के मुकाबले एक चौथाई खर्च पर ही इत्र तैयार किया जा सकेगा। द कन्नौज अतर एसोसिएशन के अध्यक्ष पवन त्रिवेदी कहते हैं कि गैस पाइप लान बिछ जाए तो हर नजरिए से बेहतर हो। इसके लिए जल्द ही काम शुरू होने का आश्वासन मिला है। कन्नौज में इत्र पर रिसर्च करने वाली संस्था एफएफडीसी में ईंधन की कम खपत को ध्यान में रखकर खास किस्म का वह बर्तन और उपकरण तैयार किया गया है। एफएफडीसी के निदेशक डॉ. शक्ति विनय शुक्ला बताते हैं कि काफी रिसर्च के बाद तैयार डेग और भभका (इत्र तैयार करने वाले बर्तन) को तैयार किया गया है। इसमें परंपरागत डेग और भभका के मुकाबले ईंधन की कम खपत होगी। यह किफायती भी है और पर्यावरण के नजरिए से भी बेहतर है। इत्र कारोबारी इसमें दिलचस्पी नहीं ले रहे हैं। इससे 30 फीसदी ईंधन की बचत हो सकती है। इत्र के लिए एक डेग में 100 किलोग्राम लकड़ी खपत होती है। गुलाब जल तैयार करने में ईंधन ज्यादा खपत है। एक डेग में 100 किलोग्राम लकड़ी ईंधन के रूप में खपत है। एक कारखाने में 10 डेग में माल तैयार करने पर एक टन से ज्यादा लकड़ी खपत है फूलों से इत्र तैयार करने में लकड़ी की आंच बेहतर होती है। इससे खुशबू में शुद्धता बनी रहती है। यही वजह है कि शुद्ध इत्र तैयार करने के लिए आज भी ईंधन के लिए लकड़ी की ही पसंद की जाती है। कई बार लकड़ी जुटाना मुश्किल हो जाता है।-