भगवान श्री कृष्ण जब अर्जुन को कुरुक्षेत्र में श्री मद्भगवद गीता का उपदेश दे रहे थे तो उन्होंने जीवन का कोई भी भाग या समस्या को नहीं छोड़ा, सभी समस्याओं और उनकी प्रकृति पर प्रकाश डाला, इसी में एक था की संसार के आवागमन के चक्र से मुक्ति कैसे मिलेगी, इसी को एक श्लोक और उसके विशद विश्लेशण के माध्यम से बताया जा रहा है।
यह श्लोक अध्याय ९ का तीसरा श्लोक है जिसे भगवान ने परम् गुप्त बताया है, क्युकी ये सबको या तो बताया नहीं जा सकता या फिर उनकी समझ में जल्दी नहीं आएगा इसलिए इसे सिर्फ गुरु परम्परा से ही प्राप्त किया जा सकता है।
अश्रद्दधानाः पुरुषा धर्मस्यास्य परन्तप । अप्राप्य मां निवर्तन्ते मृत्युसंसारवर्त्मनि ॥
इस श्लोक न शब्दार्थ है :
हे परन्तप! जो लोग भक्ति में श्रद्धा नहीं रखते, वे मुझे प्राप्त नहीं कर पाते | अतः वे इस भौतिक जगत् में जन्म-मृत्यु के मार्ग पर वापस आते रहते हैं |
अब हम बात करते इसके तातपर्य या विशद भावार्थ की जिसे आपको समझाना चाहता हूँ मै।
हम संसार का कोई भी काम करते है या सीखते है तो उस काम में या सीखाने वाले के प्रति अगर हमारी श्रद्धा नहीं है तो हम बहुत सी उपलब्धिओं को खो देते है, अर्थात अगर हम भगवान की भक्ति या उनका प्रेम पाना चाहते है तो हमारे अंदर ग्रंथो के प्रति, गुरुजनो के प्रति श्रद्धा होने ही चाहिए क्युकी श्रद्धाविहीन व्यक्ति के लिए भगवान की भक्तियोग पाना कठिन है, इस श्लोक का यही तातपर्य है | अब प्रश्न ये है की भक्ति के लिए श्रद्धा कहाँ से लाये तो उसका भी हल भगवान ने बताया है की श्रद्धा तो भक्तों की संगति से उत्पन्न की जा सकती है यानि की भक्तो की संगति करो | महापुरुषों से वैदिक प्रमाणों को सुनकर भी अभागे लोग ईश्र्वर में श्रद्धा नहीं रखते | वे झिझकते रहते हैं और भगवद्भक्ति में दृढ़ नहीं रहते | इस प्रकार कृष्णभावनामृत की प्रगति में श्रद्धा मुख्य है | चैतन्यचरितामृत में कहा गया है कि श्रद्धा तो वह पूर्ण विश्र्वास है कि परमेश्र्वर श्रीकृष्ण की ही सेवा द्वारा आरी सिद्धि प्राप्त की जा सकती है | यही वास्तविक श्रद्धा है | श्रीमद्भागवत में (४.३१.१४) कहा गया है:-
यथा तरोर्मूलनिषेचनेन तृप्यन्ति तत्स्कंधभुजोपशाखाः |
प्राणोपहाराच्च यथेन्द्रियाणां तथेव सर्वार्हणमच्युतेज्या ||
श्लोकार्थ :
“वृक्ष की जड़ को सींचने से उसकी डालें, टहनियाँ तथा पत्तियाँ तुष्ट होती हैं और आमाशय को भोजन प्रदान करने से शरीर की सारी इन्द्रियाँ तृप्त होती हैं | इसी तरह भगवान् की दिव्यसेवा करने से सारे देवता तथा अन्य समस्त जीव स्वतः प्रसन्न होते हैं |” अतः गीता पढ़ने के बाद मनुष्य को चाहिए कि वह गीता के इस निष्कर्ष को प्राप्त हो-मनुष्य को अन्य सारे कार्य छोड़कर भगवान् कृष्ण की सेवा करनी चाहिए | यदि वह इस जीवन-दर्शन से विश्र्वस्त हो जाता है, तो यही श्रद्धा हैं |
इस श्रद्धा का विकास कृष्णभावनामृत की विधि है | कृष्णभावनाभावित व्यक्तियों की तीन कोटियाँ हैं | तीसरी कोटि में वे लोग आते हैं जो श्रद्धाविहीन हैं | यदि ऐसे लोग ऊपर-ऊपर भक्ति में लगे रहें तो भी उन्हें सिद्द अवस्था प्राप्त नहीं हो पाती | सम्भावना यही है कि वे लोग कुछ काल के बाद नीचे गिर जाएँ | वे भले ही भक्ति में लगे रहें, किन्तु पूर्ण विश्र्वास तथा श्रद्धा के अभाव में कृष्णभावनामृत में उनका लगा रह पाना कठिन है |
कई बार भगवान के शुद्ध भक्तो को इसका प्रत्यक्ष अनुभव हुआ है कि कुछ लोग आते हैं और किन्हीं गुप्त उद्देश्यों से कृष्णभावनामृत को ग्रहण करते हैं | किन्तु जैसे ही उनकी आर्थिक दशा कुछ सुधर जाती है कि वे इस विधि को त्यागकर पुनः पुराने ढर्रे पर लग जाते हैं | कृष्णभावनामृत में केवल श्रद्धा के द्वारा ही प्रगति की जा सकती है | जहाँ तक श्रद्धा की बात है, जो व्यक्ति भक्ति-साहित्य में निपुण है और जिसने दृढ़ श्रद्धा की अवस्था प्राप्त कर ली है, वह कृष्णभावनामृत का प्रथम कोटि का व्यक्ति कहलाता है |
दूसरी कोटि में वे व्यक्ति आते हैं जिन्हें भक्ति-शास्त्रों का ज्ञान नहीं है, किन्तु स्वतः ही उनकी भगवान में दृढ़ श्रद्धा है कि कृष्णभक्ति सर्वश्रेष्ठ मार्ग है, अतः वे इसे ग्रहण करते हैं | तृतीय कोटि के व्यक्ति को यह श्रद्धा तो रहती है कि कृष्ण की भक्ति उत्तम होती है, किन्तु भागवत तथा गीता जैसे शास्त्रों से उसे कृष्ण का पर्याप्त ज्ञान प्राप्त नहीं हो पता |
कभी-कभी तृतीय कोटि के व्यक्तियों की प्रवृत्ति कर्मयोग तथा ज्ञानयोग की ओर रहती है और कभी-कभी वे विचलित होते रहते हैं, किन्तु ज्योंही उनसे ज्ञान तथा कर्मयोग का संदूषण निकल जाता है, वे कृष्णभाव की द्वितीय कोटि या प्रथम कोटि में प्रविष्ट होते हैं | भगवान श्री कृष्ण की भक्ति के लिए भी श्रद्धा तीन अवस्थाओं में विभाजित है और श्रीमद्भागवत में इनका वर्णन है |
श्री मद भागवत के ग्यारहवें स्वंध में प्रथम, द्वितीय तथा तृतीय कोटि की आस्तिकता का भी वर्णन किया हुआ है | जो लोग कृष्ण के विषय में तथा भक्ति की श्रेष्ठता को सुनकर भी भगवान में, संतो में और गुरुजनो के वचनो में श्रद्धा नहीं रखते और यह सोचते हैं कि यह मात्र प्रशंसा है, उन्हें यह मार्ग अत्यधिक कठिन जान पड़ता है, भले ही वे ऊपर से भक्ति में रत क्यों न दिखाई देते हों | उन्हें भक्ति रूपी सिद्धि प्राप्त होने की आशा बहुत ही कम होती है | इस प्रकार भगवान की भक्ति करने के लिए शास्त्रों पर श्रद्धा परमावश्यक है |