दिल्ली उच्च न्यायालय ने कहा है कि स्व-नियमन के लिए विश्वविद्यालयों का अध्यादेश किसी छात्र के शिक्षा के अधिकार और मानवीय गरिमा के साथ जीवन जीने के अधिकार को खत्म नहीं कर सकता। अदालत ने कहा कि विश्वविद्यालयों को उन मामलों में निर्णय लेते समय कठोर नहीं होना चाहिए, जहां छात्रों द्वारा प्रवासन की मांग के लिए ठोस कारण बताए गए हों। न्यायमूर्ति पुरुषइंद्र कुमार कौरव ने गुरु गोबिंद सिंह इंद्रप्रस्थ विश्वविद्यालय से संबद्ध दो अलग-अलग कॉलेजों में पढ़ने वाले दो छात्रों द्वारा इंटर कॉलेज माइग्रेशन की मांग करने वाली याचिका पर सुनवाई करते हुए यह टिप्पणी की। महाराजा सूरजमल इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी से बीबीए कर रही एक छात्रा ने इस आधार पर स्थानांतरण की मांग की कि कॉलेज उसके निवास से 30 किलोमीटर से अधिक दूर है और उसे कठिनाई का सामना करना पड़ रहा है, क्योंकि उसे धूल, जानवरों के बालों व पराग से एलर्जी है। संशोधित, एक इंट्रा और इंटर यूनिवर्सिटी प्रवासन के संबंध में पूर्ण प्रतिबंध लगाया गया है। जस्टिस कौरव ने कहा कि प्रथम दृष्टया पूर्ण प्रतिबंध लगता है। दूसरा छात्र अग्रसेन इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट स्टडीज में पढ़ रहा है और पहले वाले की मदद करने के लिए संस्थानों के आदान-प्रदान के लिए तुरंत सहमत हो गया। वे पिछले साल 13 जुलाई को विश्वविद्यालय द्वारा जारी एक अधिसूचना से व्यथित हैं, जिसके तहत छात्रों के माइग्रेशन से संबंधित अध्यादेश सात में संशोधन किया गया था और इंट्रा और इंटर यूनिवर्सिटी माइग्रेशन के संबंध में पूर्ण प्रतिबंध लगाया गया था। न्यायमूर्ति कौरव ने कहा कि सक्षम प्राधिकारी उत्पन्न होने वाली जमीनी हकीकतों से अनभिज्ञ नहीं रह सकता। ऐसा प्रतीत होता है कि यह एक ऐसा मामला है, जहां सामान्य नियम के प्रति कठोर होने के बजाय अधिक व्यावहारिक दृष्टिकोण अपनाने की जरूरत है।