भारत में जब भी सामाजिक समरसता या सौहार्द की बात चलती है, एक वर्ग तुरंत जातिवाद का नागदा पीटने लगता है, फिर सामाजिक व्यवस्था और आरक्षण के चक्र्वियू में फस कर मूल भाव गायब हो जाता है, आज जो लेख मेरे माध्यम से आपतक आएगा वो काफी हद था आपका सारा भरम दूर कर देगा और शायद गर्व भी करा देगा हिन्दू होने पर, और सबसे मूल भाव ये है की शायद जातिवाद का जो नकारत्मक स्वरूप हमें दिखाया गया है वो भी कम हो जाए पढ़कर। भारतीय समाज में पीढ़ियों से आरक्षण किसके पास…?
- गहना बनाने का आरक्षण — सुनार
- हथियार बनाने का आरक्षण — लोहार
- पत्तल बनाने का आरक्षण — बारी
- सूप बनाने का आरक्षण — धरिकार
- नाव चलाने का आरक्षण — मल्लाह
- बर्तन बनाने का आरक्षण — ठठेरा
- कपड़े सिलने का आरक्षण — दर्जी
- फर्नीचर बनाने का आरक्षण — बढ़ई
- बाल काटने का आरक्षण — नाई
- ईंट बनाने का आरक्षण — प्रजापति
- मूर्ति बनाने का आरक्षण — शिल्पकार
- घर बनाने का आरक्षण — राजमिस्त्री
- तेल पेरने का आरक्षण — तेली
- पान बेचने का आरक्षण — बरई
- दूध बेचने का आरक्षण — ग्वाला
- मांस बेचने का आरक्षण — खटिक
- जूता बनाने का आरक्षण — चर्मकार
- माला बनाने का आरक्षण — माली
- मिठाई बनाने का आरक्षण — हलवाई
- टेक्सटाइल का आरक्षण — दर्जी
- चूड़ी का आरक्षण — मनिहार
- रियल सेक्टर का आरक्षण — कुम्हार
क्या हजार साल से किसी सुनार ने लोहार को दामाद बनाकर उसको अपने आरक्षित व्यवसाय में घुसने दिया ? तो फिर आखिर आरक्षण का असली आनन्द कौन लिया ?
जब हजारों साल इन्ही पेशे से रोजगार लिया किसी को घुसने नही दिया, तो आज इस पेशे के कारण खुद को पिछड़ा क्यों कहते हो ? विचार करें ?
इन सारे सम्मानित व्यवसाइयों को आज संविधान ने पिछड़ा और अछूत बना दिया है।
सबसे बड़ी बात ये है की जिसने स्वेक्षा से जो कर्म चुन लिया उसी में महारथ मिलती गयी, वो उसका मनपसंद व्यवसाय बन गया, उसके बच्चो को भी वही करने में आनंद आया और वो सिद्धस्त हो गए, परिणाम ये हुआ की उस तरह का काम करने वालो के एक समूह बनने लगा जिनके दुःख सुख और समस्या एकजैसी होती थी, उनमे तालमेल ज्यादा हुआ।
परिणाम ये हुआ की एक जैसा काम करने वाला दमांद भी ऐसे ही काम करने वाले को चुनता था और चाहता था की बहु भी ऐसे ही घर से आये जो उसके काम में हाथ बटा सके, कालांतर में ये व्यवस्था और परिपक्व और मजबूत होती गयी।
सनातन धर्म में जब सरकारी नौकरी नहीं होती थी, तब सबको रोजगार दिया गया था फिर फिर अन्याय कहाँ है ?
क्षत्रियों का आरक्षण क्या था — जवानी में बलिदान होकर उनकी औरतों का विधवा होना, बच्चों का अनाथ होना। जो कोई भी नही करना चाहेगा, लेकिन उन्होंने स्वीकार किया।
जाति मंदिरों में नहीं पूछी जाती है, लेकिन संविधान में पूछी जाती है, सरकारी नौकरी में पूछी जाती हैं, राशन, स्कालरशिप और हर संस्थानो में पूछी जाती है।
पहले के जमाने मे कमाने खाने के लिए सरकारी नौकरी तो होती नही थी।
ब्राह्मणों ने अपने लिए भिक्षा माँगना और अध्यापन रखा यह सब व्यवसाय जिससे भारत पूरी दुनिया में सोने की चिड़िया था। भारत को सोने की चिड़िया बनाने वाले पिछड़े कैसे ?
ब्राह्मणों ने क्षत्रियों के हिस्से में बलिदान दिया और स्वयं ब्राह्मणों ने कई बार क्षत्रियों के साथ मिलकर बलिदान और त्याग किया।
फिर भी अपने हिस्से में भिक्षाटन रखा, तो फिर उन्होंने जाति व्यवस्था में अन्याय कैसे किया??? वैसे जाती किसी ब्रह्मण ने नहीं बनायीं है।
अंग्रेजों ने मुगलों ने, मुगलों की पार्टी कांग्रेस ने, कम्युनिस्टों ने सिर्फ राजनीतिक स्वार्थ के लिए हिंदुओं को जातियों में बाटा और जनजातियों में ज्यादा से ज्यादा नफरत के बीज बोए, हिंदुओं के बीच ज्यादा से ज्यादा लड़ाई करवाएं और एक दूसरे के प्रति घृणा भाव रखकर कमजोर करते जाए।
यह सब एक अंतरराष्ट्रीय साजिश का हिस्सा है भारत को अपनी सभ्यता, संस्कृति एवं अस्तिवि भूलकर एक समान्य सा आत्मविस्वास से रहित देश बनाने का बहुत बड़ा षड्यंत्र है जो भारत में पिछले हजार सालों से चल रहा है।
भारत में सभी धर्मो के लोग रहते है, फिर अल्पंसख्यक का फायदा सिर्फ एक धर्म को ही क्यों मिलता है ?
सनातन धर्म में जब भी कोई पूजन सम्पन्न होता है तो कहा जाता है की धर्म की जय हो अधर्म का नाश हो, प्राणियों में सद्भावना हो विश्व का कल्याण हो, यही वसुधैव कुटुंबकम का भाव है, यहाँ पर धर्म का मतलब सनातन धर्म भी मान सकते हो उसमे कोई दिक्क्त नहीं है, लेकिन सनातन धर्म का मूल भाव है परहित, मतलब सभी का भला करने का भाव हो और यही उत्तरोत्तर बढ़ता रहे और किसी का अहित करने का भाव ही अधर्म है उसका नाश हो।